Saturday, June 27, 2009

स्लमडॉग करोड़पति........

"स्लमडॉग करोड़पति".......... यह फ़िल्म काफ़ी अच्छी लगी मुझे....... खैर, अच्छी तो बहुत लोगों को लगी..... मगर मेरे पास एक ख़ास वजह, या कहें की एक पुरानी दास्ताँ है, जो ज़हन में आ गई इस फ़िल्म को देखने के बाद।

किस्सा
है एक ऐसे सफर का जो शायद एक २ साल के बच्चे की ज़िन्दगी बदल देता।

June 1983 - स्कूल की गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने को थी। छुट्टियाँ मना एक परिवार मुंबई वापिस आ रहा था। कल्याण (महाराष्ट्र) स्टेशन पर ट्रेन रुकी। पानी लेने के लिए सज्जन प्लेटफोर्म पर उतरे। उनका २ साल का छोटा सा बच्चा भी उनके पीछे हो लिया। बच्चे की माँ ने सोचा की वह अपने पिता के साथ गया, मगर पिता को पता नही था की वह बच्चा उनके पीछे है। अचानक ही प्लेटफोर्म की भीढ़ में बच्चा गुम हो गया। जब सज्जन वापिस अपनी सीट पर पहुंचे और बच्चे के बारे में पूछा गया, तो पता चला की बच्चा गुम हो गया है। बच्चे की माँ का रो कर बुरा हाल था। उस डब्बे के काफी सारे लोग स्टेशन पर उतर लाल रंग के कपड़े पहने एक बच्चे को खोजने में जुट गए। ट्रेन खुलने का समय हो गया, मगर वह बच्चा नही मिला। स्टेशन मास्टर से गुजारिश कर ट्रेन को रुकवाया गया, गुमशुदगी की सूचना पुलिस को दी गई।

करीब आधे घंटे की खोज ख़बर के बाद किसी व्यक्ति ने पुलिस को बताया कि उसने किसी आदमी को एक छोटे बच्चे के साथ प्लेटफोर्म से बाहर जाते हुए देखा है।

बच्चे के पिता पुलिस और कई लोगों के साथ उस व्यक्ति की तलाश में जुटे। प्लेटफोर्म ख़त्म होने के बाद, पटरी पर एक व्यक्ति बच्चे के साथ जाता हुआ दिखा। उसे पकड़ा गया, बच्चे को वापिस उसके पिता के हवाले किया गया। लोगों कि भीढ़ ने उसकी जम कर पिटाई की। लोगों ने बताया कि यह कोई बच्चा चोर होगा, जो बच्चों को चुरा उनसे भीख मंगवाते हैं।

"Slumdog millionaire" फ़िल्म का वही scene चल रहा था, जिसमे बच्चों कि आँखे फोड़ उन्हें 'सूरदास ' बनाया जाता है। और मेरे ज़हन में उस २ साल के मासूम बच्चे कि याद गई और डर लगा कि क्या होता अगर वह बच्चा नही मिलता .

वह
बच्चा और कोई नही, 'मैं' ही था

सोच कर डर लगता है.......... शायद किसी रेलवे स्टेशन, किसी traffic signal या किसी मन्दिर के पास, बिना आंखों, हाथ या पाँव के मैं भी "गुज़र बसर" कि भीख मांग रहा होता।

मगर बार-बार यही सवाल ज़हन में आता है की आख़िर 'किसकी गुजर बसर के लिए' ??????

एक और ट्रेन का सफर याद आता है.........

April 2006- कोलकाता से बंगलौर का सफर था यह। राजमुंदरी (आंध्र प्रदेश) स्टेशन पर ट्रेन रुकी और एक छोटा सा बच्चा.... यही कोई 7-8 साल का, हमारे डिब्बे में चढ़ा। बदन पर कपड़े के नाम पर बस एक छोटी सी निकर पहने हुए था। हाथ में एक गंदा कपड़ा, जिस से वह ट्रेन का फर्श साफ़ कर रहा था। जब मेरे पास पहुंचा तो उसे नज़दीक से देखा, पूरे बदन पर चोट के निशान थे। उसके माथे पर मालूम पड़ता था, जैसे हाल के कुछ दिनों में किसी ने ज़ोर से कुछ मारा है। टाँके अभी थे उसके माथे पर। सोच रहा था की कितने ज़ालिम होंगे इस बच्चे के माँ-बाप जो इसे इतनी बुरी तरह पीटते हैं।

अभी मैं सोच में डूबा हुआ ही था, की एक नन्हा सा हाथ मेरे सामने आया। मदद के लिए नही, भीख के लिए। आख़िर, यह बच्चे ने मेहनत की है। रेलवे कर्मचारी नही, यह बच्चे ही तो ट्रेन को साफ़ रखते हैं हमारे देश में। और इन पैसों से ही इसकी "गुज़र बसर" होती है।
सहसा ही हाथ जेब में गए, मगर बाहर नही आ रहे थे। खैर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने उस बच्चे से बात करने की कोशिश की। हैरानी की बात थी की उसे हिन्दी आती थी, इतनी अच्छी नही, मगर बोल और समझा सकता था।

वह इस पेशे में अपनी मर्ज़ी से नही आया था, ज़बरन धकेला गया था। उड़ीसा का रहने वाला था। अपने माँ-बाप से गुस्सा हो वह घर से भाग गया। किसी एक ट्रेन में चढ़ गया, बिना टिकेट और TT ने उसे इस स्टेशन पर ज़बरन उतार दिया । यहीं एक 'भले मानूस' के संपर्क में आया जिसने एक भूखे बच्चे को खाना दिया। मगर उसे क्या मालूम था की इस दुनिया में मुफ्त में कुछ नही मिलता। उस गुंडे ने बाकी कई बच्चों के साथ इसे भी भीख मांगने पर मजबूर किया और नही मानने पर मार पड़ती थी। उसके शरीर पर यह सारे ज़ख्म उसके गवाह थे। पुछा कि डॉक्टर के पास गया तो क्या डॉक्टर शिकायत नही करता.......... मगर डॉक्टर के पास उन बच्चों को ले कहाँ जाते थे। बिना anesthesia के उसे टाँके लगाये गए थे। ऐसा तो सोच कर भी डर लगता है की इस छोटे से बच्चे ने यह सब कैसे सहा होगा।

खैर, मेरे हाथ अभी भी जेब में ही थे। बाहर आए, मगर खाली शायद, मेरे दिए रुपये इसकी भूख तो शांत करें, मगर ऐसे कई बच्चे हमारे इस "२ रुपये " की वजह से ही शायद भीख मांगने को मजबूर हैं किसी का "गुज़र-बसर" करने को ............ और इसी वजह से इस घटना के बाद किसी भिखारी को भीख देने की इच्छा नहीं हुई..........पता नहीं, मेरा यह तर्क कितना सही है और कितना गलत..... मगर ........................

कुछ घटनाएं जीवन और समाज के प्रति हमारी सोच को बदल देती हैं ...... और यह घटना भी उनमे से एक है ...........
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खैर, यही अंत होता है मेरे इस लेखन का......... इसकी शुरुआत कुछ 5 महीने पहले हुई थी...... और आज खत्म हुई है......कुछ लोग कभी नहीं बदलते ..... और.... पुरानी आदते इतनी जल्दी नहीं जाती :o)

2 comments:

  1. bit late .....
    U should have given this stury to danny boyle ...

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  2. he he :D
    woh to mujhse hi acting karaataa Jassi ;)

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