Saturday, May 23, 2009

एक अनजान से मुलाक़ात

18 जुलाई 2008:
दोपहर होने को थीअमृतसर जाने वाले ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन छोड़ चुकी थी
यूँ तो यह सफर
था बंगलोर से लद्दाख तक का अपनी टीम के साथ 16 जुलाई को दिल्ली की ओर निकला दिल्ली में पूरे दिन रुकना था मैंने सोचा की दीदी से मिल आता हूँ दीदी पठानकोट में थी जम्मू तो जाना ही था, सोचा की पठानकोट चला जाऊं और अपने दोस्तों के साथ पठानकोट स्टेशन पर उनके ट्रेन में सुबह चढ़ जाऊं
खैर, अपने सारे काम अश्विन भईया को सौंप और उनसे ढेर सारी डांट खा कर मैं भागते हुए अमृतसर की ट्रेन में चढ़ गया, बगैर टिकेट समय कहाँ था टिकेट खरीदने का, जुर्माना भर मैं जालंधर पहुंचा मगर 5 मिनट से पठानकोट की लोकल ट्रेन छूट गई वैसे भी, मैं अक्सर 5-10 मिनट ही देर करता हूँ, ज़्यादा नही :)
फिर क्या, पठानकोट की बस पकड़ी बस निकल पड़ी और कुछ देर में मैं शहर से दूर असली पंजाब में था हरे-भरे खेत और सड़क किनारे पंजाबी ढाबे 9 साल पहले छोड़े अमृतसर की याद गई
कुछ देर बाद बस रुकी और एक महिला बस में चढ़ी कोई और सीट खाली देख, मेरे बगल की सीट पर बैठ गयीं उन्होंने मुझ से पूछा की मैं कहाँ जा रहा हूँ, मैंने बताया और उनका गंतव्य भी पूछा। वह भी पठानकोट ही जा रहीं थी, सो मैंने उनसे पुछा की और कितना समय लगेगा पठानकोट पहुँचने में कोई 1 घंटा और लगना था मेरी हिन्दी सुन कर वह तपाक से बोलीं की मैं पंजाबी नही हूँ वह बोलीं " हम business वाले, लोगों की बोली से पहचान जाते हैं की कौन पंजाबी है, गुजराती, बंगाली या मद्रासी है " मैं सुन कर मुस्कुरा दिया मन ही मन सोच रहा था, "उत्तर भारत में अक़्सर दक्षिण भारतियों का 'मद्रासी' समझा जाता है, भले ही वह तमिल हो, तेलुगु या मलयाली"
खैर उनकी हिन्दी भी पंजाबियों जैसी नही लग रही थी, तो मैंने भी उनसे पूछा वह मध्य प्रदेश से थीं, और दिल्ली में पली बढ़ी उन्हें यह जान कर काफ़ी हैरानी हुई की मैं रात 8 बजे पठानकोट पहुंचूंगा और सुबह 4 बजे रवाना हो जाऊँगा मैंने कहा," दीदी-जीजाजी से मिले 1 साल हो गए और मेरी प्यारी सी भांजी है, सान्वी, 2 साल की उन सबसे मिलने का बड़ा मन कर रहा था, तो गया भले ही कुछ घंटो के लिए सही, अच्छा समय गुजरेगा"
यह सुन कर वह 5 मिनट के लिए चुप हो गयीं। फिर वह मुझ से बोली, "आप की दीदी आप से बहुत प्यार करती हैं ना?" उनकी आँखें भर आयीं थी और आवाज़ भी भारी थी। मैंने जवाब दिया, "हाँ, इसमे पूछने की क्या बात है।"
उन्होंने कहा, "मेरा भी एक भाई है। आपकी उम्र का ही है, मगर 18 साल हो गए उससे मिले।"
इतना कह कर वह फिर चुप हो गयीं। चेहरा उदास हो गया था। कुछ पल की चुप्पी के बाद मैंने उनसे पुछा की क्या बात है, तो वह बोलीं, "मैं आपको जानती नही, पता नही मुझे आपसे यह बात कहनी चाहिए या नही। मगर एक उलझन है, जिसका हल मुझे नही मिल रहा।"
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, " कुछ बातें ऐसी होती हैं जो हम अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से नही कह पाते। मगर किसी अजनबी का बताने में कोई हर्ज नही। शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूं।"
फिर उन्होंने मुझे अपनी कहानी बताई। करीब 18 साल पहले जब वह स्कूल में ही थीं, उन्हें किसी लड़के से प्यार हुआ। तब उनकी उम्र 17 साल थी, उनकी माँ जो पेशे से नर्स हैं, उन्हें डॉक्टर बनाना चाहती थी। मगर इन्हे पढ़ाई में मन नही लगता था, बस उसी लड़के से शादी करना चाहती थी। घर वाले इसके ख़िलाफ़ थे। वह ना तो इस लड़के का जानते थे, ना ही यह सही उम्र थी शादी की। मगर इन्होने घर से भाग के शादी कर ली। इनका पति पठानकोट में ही बिज़नस करता है, शादी के पहले 10-12 साल काफ़ी खुशगवार गुज़रे। 3 बच्चे हैं इनके।
मगर पिछले कुछ सालों से इनके पति का किसी और औरत के साथ चक्कर चल गया। पहले तो घर में बस झगडे होते रहे, मगर बाद में इनका पति घर छोड़ कर उसी औरत के साथ रहने लगा। घर का खर्च चलाने और बच्चों की परवरिश के लिए इन्हें बिज़नस संभालना पडा। एक औरत के लिए अकेले यह सब करना मुश्किल हुआ। कोई मदद करने वाला भी तो नही था। बार-बार यही कहती रही, "आख़िर मैंने जिस इंसान पर भरोसा कर अपना घर, अपने माँ-बाप छोडे, उसने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा कैसे किया ?"
अब
उन्हें उनके घर की बहुत याद आती थी, उनके बचपन के दिन याद आते थे। लेकिन वह घर जाने से डरती थी, आख़िर किस मुहँ से जाएँ वह। मैंने उनसे पुछा, " आपने पिछले 18 सालों में कभी अपने माँ-बाप का चिट्ठी तक न लिखी ?" उनका जवाब ना था। मुझे तो अब उनकी दुःख भरी कहानी सुन, उन पर दया से ज्यादा गुस्सा आ रहा था।
मैंने उन्हें डांटते हुए कहा, " आपने अपने स्वार्थ के लिए अपने माँ-बाप का छोड़ दिया। कभी उनकी ख़बर भी नही ली। कभी यह भी नही सोचा की आपके घर से भागने के बाद समाज में उनकी क्या इज्ज़त रही होगी। जब तक आपकी ज़िन्दगी खुशहाल थी, आपको उनकी याद तक नही आई। अब, आपको उनकी याद आ रही है क्योंकि आप तकलीफ में हैं।"
वह रो पड़ीं। मुझे भी लगा कि मुझे भी इस लहजे में बात नही बोलनी चाहिए थी। वह रोते हुए बोलीं, "आपने ने सही कहा, हर किसी को अपने कर्मो की सज़ा इसी जन्म में भुगतनी पड़ती है। मैंने अपने माँ-बाप को इतने दुःख दिए। मैंने उन्हें धोखा दिया, अब वही मेरे साथ भी हो रहा है।"
"मैंने तो कब की खुदखुशी कर ली होती, बस अपने बच्चों के लिए जी रही हूँ। अब अपने अपने बच्चों को देख कर लगता है की मेरे माँ-बाप भी कितना प्यार करते थे मुझसे। मगर मैंने उन्हें बस धोखा ही दिया। "
मैंने कहा," आप रोइए मत, मैं माफ़ी चाहूँगा। मुझे ऐसे बात नही करनी चाहिए थी।"
वह बोलीं,"नही, मैंने बुरा नही माना। बस मुझे समझ नही आता कि मैं कभी अपने मम्मी-पापा से कभी मिलूंगी भी कि नही। अपने बच्चों को छोड़ अब कोई भी तो नही है मेरा।"
मैंने कहा," आप अपने मम्मी-पापा के पास जाइये। वह आपको ज़रूर माफ़ कर देंगे।"
वह बोलीं," नही, कभी जाने कि हिम्मत नही होती। मेरा भाई तो अब मुझे पहचानता भी नही होगा। सब मुझे भूल ही चुके होंगे।"
मैंने कहा," आप ऐसा मत सोचिये। बच्चे ही माँ-बाप को भूल जाते हैं, छोड़ जाते हैं। माँ-बाप कभी बच्चो को नही और ना भूलते हैं । आख़िर बच्चे ही तो गलतियाँ करते हैं। आप एक बार उनसे मिल आयें। आपके भाई का पता नही, मगर आपके मम्मी-पापा आपको ज़रूर माफ़ कर देंगे।"
वह बोलीं," लेकिन वह लोग मुझे क्यों माफ़ करेंगे, मुझे गालियाँ दे कर भगा देंगे।"
मैंने कहा," ऐसा मत सोचिये। आपको ज़रूर वह लोग गालियाँ देंगे, शायद थप्पड़ भी पड़े। मगर आपके माँ-बाप गोली तो नही मार देंगे? वह लोग आपको शायद घर में घुसने भी ना दें, मगर आप दरवाज़े पे ही खड़े रहिएगा वह आपको ज़रूर अपना लेंगे। माँ-बाप अपने बच्चों को हमेशा माफ़ कर देते हैं। और हाँ, आपको जो इतनी बेइज़त्ति झेलनी पड़े, शायद आपकी गलतियों के लिए काफ़ी कम होगा।"
यह कह कर मैं हंस दिया और बोला," अपने बच्चों को साथ ले जाइएगा। बूढ़े लोगों को असल से ज़्यादा सूद पसंद आता है।"
उनके चेहरे पर थोड़ा सा सुकून दिखा। उन्होंने आँखे बंद कि और कुछ सोचने लगीं।
हम तब तक पठानकोट लगभग पहुँच चुके थे। मैंने उनसे पूछा कि हम पठानकोट आ गएँ है क्या?
उन्होंने हाँ में जवाब दिया और मुझसे address पूछा कि कहाँ जाना है। कुछ ही देर में उनका stop आ गया। मुझे कहा कि अगले चौक पर उतर जाइयेगा। बोलीं," आपसे मिल कर और बात कर के काफ़ी अच्छा लगा। आपने सही कहा, शायद अनजान लोगों से हम पूरी तरह बात कह पाते हैं। और मैं कल ही जाकर, जिस पहले दिन कि rseservation मिलेगी,दिल्ली की टिकेट करा लूंगी।"
उनकी आखों में फिर आंसू थे, मगर शायद उम्मीद कि किरण भी थी। वह बस से उतर गयीं।
ना मैंने उनका नाम पूछा, ना उन्होंने मेरा। हम बिल्कुल अनजान थे। मगर यह 1 घंटे का सफर, शायद ज़िन्दगी में कभी ना भूले।
मुझे उम्मीद है कि वह अपने मम्मी-पापा से मिलने ज़रूर गयीं होंगी। जानने कि इच्छा होती है कि आगे क्या हुआ।
मगर मैं तो उनका नाम तक नही जानता..................शायद कभी पता ना चल पाये, कि आगे क्या हुआ.........

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