21 जुलाई, 2008 - कुछ दोस्तों के साथ कश्मीर के सफ़र पर निकले थे....ना भुला देने वाला अनुभव....Jawahar institute of mountaineering (पहलगाम) में हमारा पड़ाव था.....सुबह 6 बजे गुसलखाने में ठन्डे-ठन्डे पानी को देख जितना खून खौल उठता था.....नाश्ते में गरमा-गरम चाय पी दिल में उतनी ही ठंडक पहुँचती थी :-)..... खैर, आज के दिन हमारी टीम को एक लम्बे trek पर जाना था. और 13 किलोमीटर लंबा सफ़र लिड्डर नदी के साथ हो कर जाती थी.... और फिर क्या था, आधे घंटे में ही पूरी टीम साजो-सामान ले तैयार हो गयी....टीम की महिलाओं को इतने कम समय में तैयार होते देख ताज्जुब ही होता था :-)
खैर.....सफ़र शुरू हुआ.....सुहाना मौसम था और आसमान में हल्के बादल हिमालय की खूबसूरती को और निखार रहे थे......पूरी ताकत के साथ निकले सभी.....मगर शुरुआत में ही लम्बी-ऊंची चढ़ाई थी......सब निकले तो साथ-साथ ही......मगर कुछ थके कदम पीछे होते गए....और हमारी टीम का 'छोटू' (सुजय) इस दौड़ में सबसे पीछे :o)
उसका बड़ा भाई वेंकटेश और मैं उसके साथ लिए पीछे हो लिए और टीम के सभी सदस्यों को आगे जाने को कह दिया.......जहाँ छोटू को कभी आगे से खींचता वेंकटेश और पीछे से धकेलता मैं.... पिछड़ जाने का डर था ....तो वहीँ अपनी आजादी से पूरे 'फुर्सत' में वादी को camera में कैद करने का समय भी दे रहा था छोटू :-)
लगभग 1 घंटे का थका देने वाला सफ़र और पानी की बोतल खाली....छोटू के कंधे का बोझ हल्का करने के चक्कर में आगे जा चुके दोस्तों के हिस्से पानी की बोतल आई....और वेंकटेश के खाते में छोटू का 'make-up' का साजो-सामान....इस मौसम में जहाँ कोई इंसान शायद लीटर भर पानी भी ना पीये...हम 2 लीटर पसीना बहा चुके थे.....पचास फीट नीचे कल-कल करती लिड्डर नदी का शोर हमारी थकान तो ज़रूर भुला देता था....मगर प्यास नदी को देखने से कहाँ जाती थी..... पास ही किसी चट्टान से पानी की छोटी धारा बहती दिखी छोटू को....उसे झरना कहना शायद अतिश्योक्ति होगा :-)
जहां हमारी नज़र पानी की धार पर थी, छोटू की नज़र उसके उदगम स्थान पर चली गयी.....पानी की धारा, पत्थर में फंसे एक प्लास्टिक कचरे से बह कर आ रही थी (शायद हमारे ही किसी शहरी दोस्त की कारिस्तानी होगी :-( .....और हमारे 'hygenic' छोटू को यहाँ से पानी पीना गंवारा ना गुजरा....और हम प्यासे ही आगे हो लिए :-(
दोस्त बहुत ही आगे जा चुके थे....और नदी काफी नीचे थी....हमारी किस्मत ही कहें, इस वीराने में एक घर दिख गया....और घर से निकलता धुंआ भी....ज़रूर इस घर में कोई रहता है..... trekking की पगडण्डी का रास्ता छोड़ कदम अपने आप ही उस घर की ओर बढ़ते चले गए.....जो दूर से एक घर दिख रहा था....अब सूखी लकड़ियों पर खड़ा एक पत्थर और मिटटी से बना झोपड़ा दिख रहा था.....
झोपड़ी के बाहर पहुँच हमने आवाज़ लगाई....एक बुज़ुर्ग इंसान बाहर आये हमने उनसे पानी माँगा.....हमारी और ख़ास कर छोटू की हालत देख बड़े ही प्यार और इज्ज़त से घर के अंदर बुलाया....शुरू में थोड़ी हिचक तो हुई....मगर ना बोलना शायद उनका अपमान होता...हम अन्दर चले गए और बैठने की गुजारिश की गयी हमें......वैसे ५ फीट ऊँची झोपड़ी में सीधे खड़ा होना भी तो मुश्किल था.....किसी के घर जा पहले चारो तरफ नज़र दौडाना शालीनता तो नहीं, मगर बैठने की जगह तो खोजनी ही थी, जो हमें दिखी नहीं....तभी उनकी बेगम ने हमें एक ६ इंच चौड़ा और कुछ ६-८ फीट लंबा लकड़ी का फट्टा दिखाया और हमने अपनी तशरीफ़ का टोकरा वहीँ जमा दिया :-)
बुज़ुर्ग ने उनके पोते को आवाज़ लगाई और पानी लाने को कहा....उनकी बेटी ने, जिसकी गोद में प्यारा सा बच्चा अंगूठा चूस रहा था, हमारी तारीफ़ पूछी....हमने अपना नाम, जगह और आने का मकसद बताया.....इतनी ही देर में वह लड़का पानी ले आया.... मगर उसे क्या पता था की एक जग पानी हम प्यासी आत्माओं को तृप्त ना कर पायेगा.....और अपनी माँ के बोलने पर एक आज्ञाकारी पुत्र सा दौड़ गया और पानी लाने को :-)
इसी बीच उस बच्चे की माँ ने हमसे पुछा की क्या हम काहवा(कश्मीरी चाय) लेना पसंद करेंगे....और हमने भी पूरी शिष्टाचार दिखाते हुए मना किया. कहा, "तक्कल्लुफ़ की कोई ज़रुरत नहीं, हमारे दोस्त काफी आगे चले गए हैं. हमें निकलना ही होगा."
इस पर उन बुज़ुर्ग ने कहा, "अरे बेटा, तक्कलुफ़ की कोई बात नहीं. आप सभी काफी थके हुए नज़र आ रहे हैं. थोड़ा आराम कर लीजिये और काहवा पी कर थकान भी मिट जायेगी."
यह अल्फाज़ उनकी ज़बान से नहीं, दिल से निकले प्रतीत होते थे. मज़ाक में उन्होंने कहा, "कभी किसी गरीब के घर भी चाय पी लीजिये, आपके बंगलोर में यह ना मिलेगी" :-)
तभी वह लड़का और पानी ले आया. हमने पानी पिया और उनका शुक्रिया अदा करते हुए उनसे माफ़ी मांगी की हमें देर हो जायेगी. हमने भी उनके बारे में पूछा. वह बस गर्मियों में ही यहाँ पहाड़ पर अपनी भेड़-बकरियां ले कर आते हैं और सर्दियों में फिर मैदान क्षेत्रो की ओर चले जाते हैं. उनकी बातों में उनके जीवन की कठिनाई का लेश मात्रा भी दर्द ना था. खैर, हमने भी Discovery के Lonely Planet के हीरो की तरह उनके साथ तस्वीरें ली...शुक्रिया अदा किया और अपनी राह की ओर निकल लिए :-)
आगे का सफ़र जितना ही हसीन था.....मन उतना ही उदास हो रहा था. बार-बार मन में 2 हफ्ते पहले घटी एक घटना की तस्वीर उभर आती थी, जिसमे जवाब कम और सवाल ज्यादा थे !!!
बात 5 जुलाई 2008 की है. India Sudar नामक एक गैर-सरकारी संस्था की तरफ से चेन्नई के एक स्कूल के लिए एक computer की ज़रुरत थी. मैं Infosys में काम करते वक़्त Infosys की एक संस्था 'स्नेहम' के बारे में जानकारी रखता था. मैने अपनी दोस्त दीप्ति से मदद मांगी और पता करने को कहा की शायद किसी के पास कोई पुराना computer दान करने के लिए हो. और जैसी उम्मीद थी, एक MNC में काम कर रहे Senior Manager (उनका नाम या विवरण नहीं देना चाहूंगा) ने उनके पुराने computer को दाम करने की इच्छा जताई. मैं रविवार के दिन उन्हें फ़ोन कर उनके घर पहुँच गया. Marathalli के पास ही उनका घर था....घर क्या, कहे तो एक बँगला था. एक बड़ी सी हरी-भरी कालोनी में जहाँ घुसते ही सड़क पर ३ प्यारे बच्चे दिखे....सबसे बड़ा शायद यही कोई 7-8 साल का रहा होगा और छोटी सी बच्ची 4 साल से ज्यादा की न होगी. बच्ची ने उन्हें एक खेल का सुझाव दिया मगर 3 बच्चों में खेलना मुमकिन ना था.....कम से कम 4 चाहिए थे और इसीलिए उदास बैठे थे !!!
खैर, उनके बताये पते पर मैं पहुँच गया और यही कोई 40-45 साल की उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला. मेरी IISc की T-Shirt देख मुझे अपना परिचय देने की ज़रुरत नहीं पड़ी और उन्होंने मुझे झट अंदर बुला लिया....सीधे ऊपर वाले कमरे में ले गए जहाँ computer रखा था....मगर मुझे इंतज़ार करना पडा....packing तो छोड़िये, data backup भी नहीं लिया गया था.....मैं BMTC की बस में खड़े-खड़े और 1 घंटे का सफ़र तय कर थक चुका था....मगर इस कमरे में एक ही कुर्सी थी जिस पर वह बैठ काम कर रहे थे....खैर मैं इंतज़ार करता रहा...और बगल के कमरे से गोलियां चलने की आवाज़े आ रही थी.... उनकी बड़ी बेटी Video game खेल रही थी, शायद इसीलिए बाहर शायद ३ बच्चों को साथी नहीं मिलते :-)
खैर, 10 -15 मिनट में computer shut-down हो गया और उसे pack करने की जद्दो-जेहत शुरू हुई. डब्बा तो मिल गया, मगर बांधने को रस्सी ना मिली. वह स्टोर रूम में गए जहाँ उनकी बेगम का पुराना दुप्पट्टा मिला उन्हें. मगर एक 'सभ्य' पति होने के नाते उन्होंने अपनी बीवी को आवाज़ लगाई. वह ऊपर आयीं और बात की. कोई भी पुराना कपड़ा छूने से भी मना किया. उन्हें पता नहीं था की मैं बंगाली भाषा समझ लेता हूँ. मैं तो उनकी बातें सुन मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मोहतरमा की बातों का लहजा "ममता बनर्जी" से कम ना था...और उनके मुहं से आखिरी सु-वचन आया, "आमी देबो ना !!!" (मैं नहीं दूँगी !!) :)
खैर, पति-देव हार-दार कर मेरे साथ monitor/CPU उठा नीचे आये. उन्होंने अपने पिताजी को आवाज़ लगाई. 'ममता दी' सोफे पे बैठ 56" की LCD screen पर 'E-TV Bangla' में कोई सास-बहु का धारावाहिक देख रही थी....और Ekta Kapoor से भारतीय संस्कार ज़रूर सीख रही होंगी वह :)
मुझे घर में आये आधे घंटे से ज्यादा हो चुका था और बैठने के लिए तो दूर, पानी के लिए भी नहीं पूछा किसी ने. मेरी हालत एक छोटे से बच्चे की तरह थी जो किसी Ice-cream की दुकान के सामने खड़ा है, मगर जेब में एक चवन्नी भी नहीं !!! :-(
खैर, उनके पिताजी जो यही कोई 70 एक साल के होंगे, लुंगी और बनियान में पधारे. मसला सुन बस मुस्कुराए हो ठेठ बंगाली अंदाज़ में बोले, "यह सब तुम लड़का लोग से नहीं होगा, दारा (रुको)... कुछ उपाय करेगा". बस इतना बोल चले गए और कहीं से तो कुछ छोटी=छोटी रस्सियों का टुकडा ले आये. हम दोनों भी अब उनके आज्ञाकारी assistant की तरह उनके निर्देश का पालन करने लगे. बस 5 मिनट लगे और सब पैक हो गया. मगर ना तो पानी का एक ग्लास आया....और ना ही कहानी खत्म हुई !!!
अभी computer को bus stop तक ले कर जाना था, जो करीब डेढ़ किलोमीटर था. इनके गराज में Toyota Innova खड़ी देखी थी और मैं समझ नहीं पा रहा था की जनाब बार-बार अपना सर क्यों घुजा रहें हैं .....'ममता दी' की तरफ देख रहें हैं, जो बार-बार पलट हमपर निगरानी रखे हुए थी....... खैर,अब मैने भी सोच लिया था की इसे अपने सर पे उठा के तो नहीं ले कर जाऊँगा !!!
तभी जनाब ने थोड़ी हिम्मत दिखाते हुए अपने पिता से कहा की मुझे छोड़ आयेंगे. इतने में ही मोहतरमा तपाक से चिल्लाई, "कोथाए जाछो तुमी (कहाँ जा रहे हो तुम)?"
पति-देव ने नम्रता से जवाब दिया, "आमी bus stop थेके छारे आछी (मैं बस स्टॉप tak इसे छोड़ आता हूँ)" खैर मैने ठंडी सांस ली, उनके पिताजी का शुक्रिया अदा किया और निकल गया. शुक्र था की bus में बैठने को सीट मिल गयी ....और आँखे बंद कर सोचने का मौका भी....."मेरी दोस्त श्रेया ने मुझे एक दिन कहा था, "जब समाज-सेवा का काम करने जाओ तो लोग भिखारी की तरह बर्ताव करते हैं....आज मेरे साथ तो शायद इस से भी बुरा हुआ....खाया-पीया कुछ नहीं...ग्लास फोड़ा, बिल 12 आने !!"
"मगर.... मेरे कोलकाता के अनुभव इसके बिलकुल विपरीत और सुन्दर रहे हैं....आखिर यह बंगाली कौन सी चक्की का आटा खाने लगे...कौन जाने !!!!"
यह सोचते-सोचते चल ही रहा था....कि तभी छोटू ने आवाज़ लगाईं......."संदीप, एक फोटो यहाँ पर !!!!"
मैने भी camera निकाला .... self-timer लगा मैं भी दौड़ लगा खड़ा हुआ उनके साथ..... मगर मस्तिष्क में यही सवाल गूँज रहा था, "जिसके पास पैसा है, उनके संस्कार क्यों चले जाते हैं....और जिनके पास कुछ नहीं... संस्कार कभी नहीं भूलते !!!"
"मगर....अंत में सवाल यही है......ज्यादा खुश कौन है अपनी ज़िन्दगी से.....शायद इसका कोई जवाब ना हो !!!!"
बस...सफ़र पर कदम बदते रहे....गीत यह गुन-गुनाता रहा...."जाने क्या ढूंडता है ऐ मेरा दिल....जाने क्या चाहिए ज़िन्दगी ...ला ला ला..ला ला .... ऐ मेरा दिल... "
खैर.....सफ़र शुरू हुआ.....सुहाना मौसम था और आसमान में हल्के बादल हिमालय की खूबसूरती को और निखार रहे थे......पूरी ताकत के साथ निकले सभी.....मगर शुरुआत में ही लम्बी-ऊंची चढ़ाई थी......सब निकले तो साथ-साथ ही......मगर कुछ थके कदम पीछे होते गए....और हमारी टीम का 'छोटू' (सुजय) इस दौड़ में सबसे पीछे :o)
उसका बड़ा भाई वेंकटेश और मैं उसके साथ लिए पीछे हो लिए और टीम के सभी सदस्यों को आगे जाने को कह दिया.......जहाँ छोटू को कभी आगे से खींचता वेंकटेश और पीछे से धकेलता मैं.... पिछड़ जाने का डर था ....तो वहीँ अपनी आजादी से पूरे 'फुर्सत' में वादी को camera में कैद करने का समय भी दे रहा था छोटू :-)
लगभग 1 घंटे का थका देने वाला सफ़र और पानी की बोतल खाली....छोटू के कंधे का बोझ हल्का करने के चक्कर में आगे जा चुके दोस्तों के हिस्से पानी की बोतल आई....और वेंकटेश के खाते में छोटू का 'make-up' का साजो-सामान....इस मौसम में जहाँ कोई इंसान शायद लीटर भर पानी भी ना पीये...हम 2 लीटर पसीना बहा चुके थे.....पचास फीट नीचे कल-कल करती लिड्डर नदी का शोर हमारी थकान तो ज़रूर भुला देता था....मगर प्यास नदी को देखने से कहाँ जाती थी..... पास ही किसी चट्टान से पानी की छोटी धारा बहती दिखी छोटू को....उसे झरना कहना शायद अतिश्योक्ति होगा :-)
जहां हमारी नज़र पानी की धार पर थी, छोटू की नज़र उसके उदगम स्थान पर चली गयी.....पानी की धारा, पत्थर में फंसे एक प्लास्टिक कचरे से बह कर आ रही थी (शायद हमारे ही किसी शहरी दोस्त की कारिस्तानी होगी :-( .....और हमारे 'hygenic' छोटू को यहाँ से पानी पीना गंवारा ना गुजरा....और हम प्यासे ही आगे हो लिए :-(
दोस्त बहुत ही आगे जा चुके थे....और नदी काफी नीचे थी....हमारी किस्मत ही कहें, इस वीराने में एक घर दिख गया....और घर से निकलता धुंआ भी....ज़रूर इस घर में कोई रहता है..... trekking की पगडण्डी का रास्ता छोड़ कदम अपने आप ही उस घर की ओर बढ़ते चले गए.....जो दूर से एक घर दिख रहा था....अब सूखी लकड़ियों पर खड़ा एक पत्थर और मिटटी से बना झोपड़ा दिख रहा था.....
झोपड़ी के बाहर पहुँच हमने आवाज़ लगाई....एक बुज़ुर्ग इंसान बाहर आये हमने उनसे पानी माँगा.....हमारी और ख़ास कर छोटू की हालत देख बड़े ही प्यार और इज्ज़त से घर के अंदर बुलाया....शुरू में थोड़ी हिचक तो हुई....मगर ना बोलना शायद उनका अपमान होता...हम अन्दर चले गए और बैठने की गुजारिश की गयी हमें......वैसे ५ फीट ऊँची झोपड़ी में सीधे खड़ा होना भी तो मुश्किल था.....किसी के घर जा पहले चारो तरफ नज़र दौडाना शालीनता तो नहीं, मगर बैठने की जगह तो खोजनी ही थी, जो हमें दिखी नहीं....तभी उनकी बेगम ने हमें एक ६ इंच चौड़ा और कुछ ६-८ फीट लंबा लकड़ी का फट्टा दिखाया और हमने अपनी तशरीफ़ का टोकरा वहीँ जमा दिया :-)
बुज़ुर्ग ने उनके पोते को आवाज़ लगाई और पानी लाने को कहा....उनकी बेटी ने, जिसकी गोद में प्यारा सा बच्चा अंगूठा चूस रहा था, हमारी तारीफ़ पूछी....हमने अपना नाम, जगह और आने का मकसद बताया.....इतनी ही देर में वह लड़का पानी ले आया.... मगर उसे क्या पता था की एक जग पानी हम प्यासी आत्माओं को तृप्त ना कर पायेगा.....और अपनी माँ के बोलने पर एक आज्ञाकारी पुत्र सा दौड़ गया और पानी लाने को :-)
इसी बीच उस बच्चे की माँ ने हमसे पुछा की क्या हम काहवा(कश्मीरी चाय) लेना पसंद करेंगे....और हमने भी पूरी शिष्टाचार दिखाते हुए मना किया. कहा, "तक्कल्लुफ़ की कोई ज़रुरत नहीं, हमारे दोस्त काफी आगे चले गए हैं. हमें निकलना ही होगा."
इस पर उन बुज़ुर्ग ने कहा, "अरे बेटा, तक्कलुफ़ की कोई बात नहीं. आप सभी काफी थके हुए नज़र आ रहे हैं. थोड़ा आराम कर लीजिये और काहवा पी कर थकान भी मिट जायेगी."
यह अल्फाज़ उनकी ज़बान से नहीं, दिल से निकले प्रतीत होते थे. मज़ाक में उन्होंने कहा, "कभी किसी गरीब के घर भी चाय पी लीजिये, आपके बंगलोर में यह ना मिलेगी" :-)
तभी वह लड़का और पानी ले आया. हमने पानी पिया और उनका शुक्रिया अदा करते हुए उनसे माफ़ी मांगी की हमें देर हो जायेगी. हमने भी उनके बारे में पूछा. वह बस गर्मियों में ही यहाँ पहाड़ पर अपनी भेड़-बकरियां ले कर आते हैं और सर्दियों में फिर मैदान क्षेत्रो की ओर चले जाते हैं. उनकी बातों में उनके जीवन की कठिनाई का लेश मात्रा भी दर्द ना था. खैर, हमने भी Discovery के Lonely Planet के हीरो की तरह उनके साथ तस्वीरें ली...शुक्रिया अदा किया और अपनी राह की ओर निकल लिए :-)
आगे का सफ़र जितना ही हसीन था.....मन उतना ही उदास हो रहा था. बार-बार मन में 2 हफ्ते पहले घटी एक घटना की तस्वीर उभर आती थी, जिसमे जवाब कम और सवाल ज्यादा थे !!!
बात 5 जुलाई 2008 की है. India Sudar नामक एक गैर-सरकारी संस्था की तरफ से चेन्नई के एक स्कूल के लिए एक computer की ज़रुरत थी. मैं Infosys में काम करते वक़्त Infosys की एक संस्था 'स्नेहम' के बारे में जानकारी रखता था. मैने अपनी दोस्त दीप्ति से मदद मांगी और पता करने को कहा की शायद किसी के पास कोई पुराना computer दान करने के लिए हो. और जैसी उम्मीद थी, एक MNC में काम कर रहे Senior Manager (उनका नाम या विवरण नहीं देना चाहूंगा) ने उनके पुराने computer को दाम करने की इच्छा जताई. मैं रविवार के दिन उन्हें फ़ोन कर उनके घर पहुँच गया. Marathalli के पास ही उनका घर था....घर क्या, कहे तो एक बँगला था. एक बड़ी सी हरी-भरी कालोनी में जहाँ घुसते ही सड़क पर ३ प्यारे बच्चे दिखे....सबसे बड़ा शायद यही कोई 7-8 साल का रहा होगा और छोटी सी बच्ची 4 साल से ज्यादा की न होगी. बच्ची ने उन्हें एक खेल का सुझाव दिया मगर 3 बच्चों में खेलना मुमकिन ना था.....कम से कम 4 चाहिए थे और इसीलिए उदास बैठे थे !!!
खैर, उनके बताये पते पर मैं पहुँच गया और यही कोई 40-45 साल की उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला. मेरी IISc की T-Shirt देख मुझे अपना परिचय देने की ज़रुरत नहीं पड़ी और उन्होंने मुझे झट अंदर बुला लिया....सीधे ऊपर वाले कमरे में ले गए जहाँ computer रखा था....मगर मुझे इंतज़ार करना पडा....packing तो छोड़िये, data backup भी नहीं लिया गया था.....मैं BMTC की बस में खड़े-खड़े और 1 घंटे का सफ़र तय कर थक चुका था....मगर इस कमरे में एक ही कुर्सी थी जिस पर वह बैठ काम कर रहे थे....खैर मैं इंतज़ार करता रहा...और बगल के कमरे से गोलियां चलने की आवाज़े आ रही थी.... उनकी बड़ी बेटी Video game खेल रही थी, शायद इसीलिए बाहर शायद ३ बच्चों को साथी नहीं मिलते :-)
खैर, 10 -15 मिनट में computer shut-down हो गया और उसे pack करने की जद्दो-जेहत शुरू हुई. डब्बा तो मिल गया, मगर बांधने को रस्सी ना मिली. वह स्टोर रूम में गए जहाँ उनकी बेगम का पुराना दुप्पट्टा मिला उन्हें. मगर एक 'सभ्य' पति होने के नाते उन्होंने अपनी बीवी को आवाज़ लगाई. वह ऊपर आयीं और बात की. कोई भी पुराना कपड़ा छूने से भी मना किया. उन्हें पता नहीं था की मैं बंगाली भाषा समझ लेता हूँ. मैं तो उनकी बातें सुन मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मोहतरमा की बातों का लहजा "ममता बनर्जी" से कम ना था...और उनके मुहं से आखिरी सु-वचन आया, "आमी देबो ना !!!" (मैं नहीं दूँगी !!) :)
खैर, पति-देव हार-दार कर मेरे साथ monitor/CPU उठा नीचे आये. उन्होंने अपने पिताजी को आवाज़ लगाई. 'ममता दी' सोफे पे बैठ 56" की LCD screen पर 'E-TV Bangla' में कोई सास-बहु का धारावाहिक देख रही थी....और Ekta Kapoor से भारतीय संस्कार ज़रूर सीख रही होंगी वह :)
मुझे घर में आये आधे घंटे से ज्यादा हो चुका था और बैठने के लिए तो दूर, पानी के लिए भी नहीं पूछा किसी ने. मेरी हालत एक छोटे से बच्चे की तरह थी जो किसी Ice-cream की दुकान के सामने खड़ा है, मगर जेब में एक चवन्नी भी नहीं !!! :-(
खैर, उनके पिताजी जो यही कोई 70 एक साल के होंगे, लुंगी और बनियान में पधारे. मसला सुन बस मुस्कुराए हो ठेठ बंगाली अंदाज़ में बोले, "यह सब तुम लड़का लोग से नहीं होगा, दारा (रुको)... कुछ उपाय करेगा". बस इतना बोल चले गए और कहीं से तो कुछ छोटी=छोटी रस्सियों का टुकडा ले आये. हम दोनों भी अब उनके आज्ञाकारी assistant की तरह उनके निर्देश का पालन करने लगे. बस 5 मिनट लगे और सब पैक हो गया. मगर ना तो पानी का एक ग्लास आया....और ना ही कहानी खत्म हुई !!!
अभी computer को bus stop तक ले कर जाना था, जो करीब डेढ़ किलोमीटर था. इनके गराज में Toyota Innova खड़ी देखी थी और मैं समझ नहीं पा रहा था की जनाब बार-बार अपना सर क्यों घुजा रहें हैं .....'ममता दी' की तरफ देख रहें हैं, जो बार-बार पलट हमपर निगरानी रखे हुए थी....... खैर,अब मैने भी सोच लिया था की इसे अपने सर पे उठा के तो नहीं ले कर जाऊँगा !!!
तभी जनाब ने थोड़ी हिम्मत दिखाते हुए अपने पिता से कहा की मुझे छोड़ आयेंगे. इतने में ही मोहतरमा तपाक से चिल्लाई, "कोथाए जाछो तुमी (कहाँ जा रहे हो तुम)?"
पति-देव ने नम्रता से जवाब दिया, "आमी bus stop थेके छारे आछी (मैं बस स्टॉप tak इसे छोड़ आता हूँ)" खैर मैने ठंडी सांस ली, उनके पिताजी का शुक्रिया अदा किया और निकल गया. शुक्र था की bus में बैठने को सीट मिल गयी ....और आँखे बंद कर सोचने का मौका भी....."मेरी दोस्त श्रेया ने मुझे एक दिन कहा था, "जब समाज-सेवा का काम करने जाओ तो लोग भिखारी की तरह बर्ताव करते हैं....आज मेरे साथ तो शायद इस से भी बुरा हुआ....खाया-पीया कुछ नहीं...ग्लास फोड़ा, बिल 12 आने !!"
"मगर.... मेरे कोलकाता के अनुभव इसके बिलकुल विपरीत और सुन्दर रहे हैं....आखिर यह बंगाली कौन सी चक्की का आटा खाने लगे...कौन जाने !!!!"
यह सोचते-सोचते चल ही रहा था....कि तभी छोटू ने आवाज़ लगाईं......."संदीप, एक फोटो यहाँ पर !!!!"
मैने भी camera निकाला .... self-timer लगा मैं भी दौड़ लगा खड़ा हुआ उनके साथ..... मगर मस्तिष्क में यही सवाल गूँज रहा था, "जिसके पास पैसा है, उनके संस्कार क्यों चले जाते हैं....और जिनके पास कुछ नहीं... संस्कार कभी नहीं भूलते !!!"
"मगर....अंत में सवाल यही है......ज्यादा खुश कौन है अपनी ज़िन्दगी से.....शायद इसका कोई जवाब ना हो !!!!"
बस...सफ़र पर कदम बदते रहे....गीत यह गुन-गुनाता रहा...."जाने क्या ढूंडता है ऐ मेरा दिल....जाने क्या चाहिए ज़िन्दगी ...ला ला ला..ला ला .... ऐ मेरा दिल... "
humm its al so living and meaningfull
ReplyDeleteShukriya ...hmmmm...tumhara naam nahi jaanta :)
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