Tuesday, December 13, 2011

पैसे या संस्कार !!!!

यह किस्सा कुछ 3-4 साल पहले के मेरे एक अनुभव का है ......खैर, सफ़र आगे बढाते हैं..... किस्सा कितना ही पुराना क्यों ना हो, कश्मीर की हसीं वादियों की याद से ताजगी ले ही आता है :-)

21 जुलाई, 2008 - कुछ दोस्तों के साथ कश्मीर के सफ़र पर निकले थे....ना भुला देने वाला अनुभव....Jawahar institute of mountaineering (पहलगाम) में हमारा पड़ाव था.....सुबह 6 बजे गुसलखाने में ठन्डे-ठन्डे पानी को देख जितना खून खौल उठता था.....नाश्ते में गरमा-गरम चाय पी दिल में उतनी ही ठंडक पहुँचती थी :-)..... खैर, आज के दिन हमारी टीम को एक लम्बे trek पर जाना था. और 13 किलोमीटर लंबा सफ़र लिड्डर नदी के साथ हो कर जाती थी.... और फिर क्या था, आधे घंटे में ही पूरी टीम साजो-सामान ले तैयार हो गयी....टीम की महिलाओं को इतने कम समय में तैयार होते देख ताज्जुब ही होता था :-)
खैर.....सफ़र शुरू हुआ.....सुहाना मौसम था और आसमान में हल्के बादल हिमालय की खूबसूरती को और निखार रहे थे......पूरी ताकत के साथ निकले सभी.....मगर शुरुआत में ही लम्बी-ऊंची चढ़ाई थी......सब निकले तो साथ-साथ ही......मगर कुछ थके कदम पीछे होते गए....और हमारी टीम का 'छोटू' (सुजय) इस दौड़ में सबसे पीछे :o)
उसका बड़ा भाई वेंकटेश और मैं उसके साथ लिए पीछे हो लिए और टीम के सभी सदस्यों को आगे जाने को कह दिया.......जहाँ छोटू को कभी आगे से खींचता वेंकटेश और पीछे से धकेलता मैं.... पिछड़ जाने का डर था ....तो वहीँ अपनी आजादी से पूरे 'फुर्सत' में वादी को camera में कैद करने का समय भी दे रहा था छोटू :-)
लगभग 1 घंटे का थका देने वाला सफ़र और पानी की बोतल खाली....छोटू के कंधे का बोझ हल्का करने के चक्कर में आगे जा चुके दोस्तों के हिस्से पानी की बोतल आई....और वेंकटेश के खाते में छोटू का 'make-up' का साजो-सामान....इस मौसम में जहाँ कोई इंसान शायद लीटर भर पानी भी ना पीये...हम 2 लीटर पसीना बहा चुके थे.....पचास फीट नीचे कल-कल करती लिड्डर नदी का शोर हमारी थकान तो ज़रूर भुला देता था....मगर प्यास नदी को देखने से कहाँ जाती थी..... पास ही किसी चट्टान से पानी की छोटी धारा बहती दिखी छोटू को....उसे झरना कहना शायद अतिश्योक्ति होगा :-)
जहां हमारी नज़र पानी की धार पर थी, छोटू की नज़र उसके उदगम स्थान पर चली गयी.....पानी की धारा, पत्थर में फंसे एक प्लास्टिक कचरे से बह कर आ रही थी (शायद हमारे ही किसी शहरी दोस्त की कारिस्तानी होगी :-( .....और हमारे 'hygenic' छोटू को यहाँ से पानी पीना गंवारा ना गुजरा....और हम प्यासे ही आगे हो लिए :-(
दोस्त बहुत ही आगे जा चुके थे....और नदी काफी नीचे थी....हमारी किस्मत ही कहें, इस वीराने में एक घर दिख गया....और घर से निकलता धुंआ भी....ज़रूर इस घर में कोई रहता है..... trekking की पगडण्डी का रास्ता छोड़ कदम अपने आप ही उस घर की ओर बढ़ते चले गए.....जो दूर से एक घर दिख रहा था....अब सूखी लकड़ियों पर खड़ा एक पत्थर और मिटटी से बना झोपड़ा दिख रहा था.....

                                     
झोपड़ी के बाहर पहुँच हमने आवाज़ लगाई....एक बुज़ुर्ग इंसान बाहर आये हमने उनसे पानी माँगा.....हमारी और ख़ास कर छोटू की हालत देख बड़े ही प्यार और इज्ज़त से घर के अंदर बुलाया....शुरू में थोड़ी हिचक तो हुई....मगर ना बोलना शायद उनका अपमान होता...हम अन्दर चले गए और बैठने की गुजारिश की गयी हमें......वैसे ५ फीट ऊँची झोपड़ी में सीधे खड़ा होना भी तो मुश्किल था.....किसी के घर जा पहले चारो तरफ नज़र दौडाना शालीनता तो नहीं, मगर बैठने की जगह तो खोजनी ही थी, जो हमें दिखी नहीं....तभी उनकी बेगम ने हमें एक ६ इंच चौड़ा और कुछ ६-८ फीट लंबा लकड़ी का फट्टा दिखाया और हमने अपनी तशरीफ़ का टोकरा वहीँ जमा दिया :-)
बुज़ुर्ग ने उनके पोते को आवाज़ लगाई और पानी लाने को कहा....उनकी बेटी ने, जिसकी गोद में प्यारा सा बच्चा अंगूठा चूस रहा था, हमारी तारीफ़ पूछी....हमने अपना नाम, जगह और आने का मकसद बताया.....इतनी ही देर में वह लड़का पानी ले आया.... मगर उसे क्या पता था की एक जग पानी हम प्यासी आत्माओं को तृप्त ना कर पायेगा.....और अपनी माँ के बोलने पर एक आज्ञाकारी पुत्र सा दौड़ गया और पानी लाने को :-)
इसी बीच उस बच्चे की माँ ने हमसे पुछा की क्या हम काहवा(कश्मीरी चाय) लेना पसंद करेंगे....और हमने भी पूरी शिष्टाचार दिखाते हुए मना किया. कहा, "तक्कल्लुफ़ की कोई ज़रुरत नहीं, हमारे दोस्त काफी आगे चले गए हैं. हमें निकलना ही होगा."
इस पर उन बुज़ुर्ग ने कहा, "अरे बेटा, तक्कलुफ़ की कोई बात नहीं. आप सभी काफी थके हुए नज़र आ रहे हैं. थोड़ा आराम कर लीजिये और काहवा पी कर थकान भी मिट जायेगी."
यह अल्फाज़ उनकी ज़बान से नहीं, दिल से निकले प्रतीत होते थे. मज़ाक में उन्होंने कहा, "कभी किसी गरीब के घर भी चाय पी लीजिये, आपके बंगलोर में यह ना मिलेगी" :-)
तभी वह लड़का और पानी ले आया. हमने पानी पिया और उनका शुक्रिया अदा करते हुए उनसे माफ़ी मांगी की हमें देर हो जायेगी. हमने भी उनके बारे में पूछा. वह बस गर्मियों में ही यहाँ पहाड़ पर अपनी भेड़-बकरियां ले कर आते हैं और सर्दियों में फिर मैदान क्षेत्रो की ओर चले जाते हैं. उनकी बातों में उनके जीवन की कठिनाई का लेश मात्रा भी दर्द ना था. खैर, हमने भी Discovery के Lonely Planet के हीरो की तरह उनके साथ तस्वीरें ली...शुक्रिया अदा किया और अपनी राह की ओर निकल लिए :-)




                                                                                          

आगे का सफ़र जितना ही हसीन था.....मन उतना ही उदास हो रहा था. बार-बार मन में 2 हफ्ते पहले घटी एक घटना की तस्वीर उभर आती थी, जिसमे जवाब कम और सवाल ज्यादा थे !!!


बात 5 जुलाई 2008 की है. India Sudar नामक एक गैर-सरकारी संस्था की तरफ से चेन्नई के एक स्कूल के लिए एक computer की ज़रुरत थी. मैं Infosys में काम करते वक़्त Infosys की एक संस्था 'स्नेहम' के बारे में जानकारी रखता था. मैने अपनी दोस्त दीप्ति से मदद मांगी और पता करने को कहा की शायद किसी के पास कोई पुराना computer दान करने के लिए हो. और जैसी उम्मीद थी, एक MNC में काम कर रहे Senior Manager (उनका नाम या विवरण नहीं देना चाहूंगा) ने उनके पुराने computer को दाम करने की इच्छा जताई. मैं रविवार के दिन उन्हें फ़ोन कर उनके घर पहुँच गया. Marathalli के पास ही उनका घर था....घर क्या, कहे तो एक बँगला था. एक बड़ी सी हरी-भरी कालोनी में जहाँ घुसते ही सड़क पर ३ प्यारे बच्चे दिखे....सबसे बड़ा शायद यही कोई 7-8 साल का रहा होगा और छोटी सी बच्ची 4 साल से ज्यादा की न होगी. बच्ची ने उन्हें एक खेल का सुझाव दिया मगर 3 बच्चों में खेलना मुमकिन ना था.....कम से कम 4 चाहिए थे और इसीलिए उदास बैठे थे !!!
खैर, उनके बताये पते पर मैं पहुँच गया और यही कोई 40-45 साल की उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला. मेरी IISc की T-Shirt देख मुझे अपना परिचय देने की ज़रुरत नहीं पड़ी और उन्होंने मुझे झट अंदर बुला लिया....सीधे ऊपर वाले कमरे में ले गए जहाँ computer रखा था....मगर मुझे इंतज़ार करना पडा....packing तो छोड़िये, data backup भी नहीं लिया गया था.....मैं BMTC की बस में खड़े-खड़े और 1 घंटे का सफ़र तय कर थक चुका था....मगर इस कमरे में एक ही कुर्सी थी जिस पर वह बैठ काम कर रहे थे....खैर मैं इंतज़ार करता रहा...और बगल के कमरे से गोलियां चलने की आवाज़े आ रही थी.... उनकी बड़ी बेटी Video game खेल रही थी, शायद इसीलिए बाहर शायद ३ बच्चों को साथी नहीं मिलते :-)
खैर, 10 -15 मिनट में computer shut-down हो गया और उसे pack करने की जद्दो-जेहत शुरू हुई. डब्बा तो मिल गया, मगर बांधने को रस्सी ना मिली. वह स्टोर रूम में गए जहाँ उनकी बेगम का पुराना दुप्पट्टा मिला उन्हें. मगर एक 'सभ्य' पति होने के नाते उन्होंने अपनी बीवी को आवाज़ लगाई. वह ऊपर आयीं और बात की. कोई भी पुराना कपड़ा छूने से भी मना किया. उन्हें पता नहीं था की मैं बंगाली भाषा समझ लेता हूँ. मैं तो उनकी बातें सुन मंद-मंद मुस्कुरा रहा था. मोहतरमा की बातों का लहजा "ममता बनर्जी" से कम ना था...और उनके मुहं से आखिरी सु-वचन आया, "आमी देबो ना !!!" (मैं नहीं दूँगी !!) :)
खैर, पति-देव हार-दार कर मेरे साथ monitor/CPU उठा नीचे आये. उन्होंने अपने पिताजी को आवाज़ लगाई. 'ममता दी' सोफे पे बैठ 56" की LCD screen पर 'E-TV Bangla' में कोई सास-बहु का धारावाहिक देख रही थी....और Ekta Kapoor से भारतीय संस्कार ज़रूर सीख रही होंगी वह :)
मुझे घर में आये आधे घंटे से ज्यादा हो चुका था और बैठने के लिए तो दूर, पानी के लिए भी नहीं पूछा किसी ने. मेरी हालत एक छोटे से बच्चे की तरह थी जो किसी Ice-cream की दुकान के सामने खड़ा है, मगर जेब में एक चवन्नी भी नहीं !!! :-(
खैर, उनके पिताजी जो यही कोई 70 एक साल के होंगे, लुंगी और बनियान में पधारे. मसला सुन बस मुस्कुराए हो ठेठ बंगाली अंदाज़ में बोले, "यह सब तुम लड़का लोग से नहीं होगा, दारा (रुको)... कुछ उपाय करेगा". बस इतना बोल चले गए और कहीं से तो कुछ छोटी=छोटी रस्सियों का टुकडा ले आये. हम दोनों भी अब उनके आज्ञाकारी assistant की तरह उनके निर्देश का पालन करने लगे. बस 5 मिनट लगे और सब पैक हो गया. मगर ना तो पानी का एक ग्लास आया....और ना ही कहानी खत्म हुई !!!
अभी computer को bus stop तक ले कर जाना था, जो करीब डेढ़ किलोमीटर था. इनके गराज में Toyota Innova खड़ी देखी थी और मैं समझ नहीं पा रहा था की जनाब बार-बार अपना सर क्यों घुजा रहें हैं .....'ममता दी' की तरफ देख रहें हैं, जो बार-बार पलट हमपर निगरानी रखे हुए थी....... खैर,अब मैने भी सोच लिया था की इसे अपने सर पे उठा के तो नहीं ले कर जाऊँगा !!!
तभी जनाब ने थोड़ी हिम्मत दिखाते हुए अपने पिता से कहा की मुझे छोड़ आयेंगे. इतने में ही मोहतरमा तपाक से चिल्लाई, "कोथाए जाछो तुमी (कहाँ जा रहे हो तुम)?"
पति-देव ने नम्रता से जवाब दिया, "आमी bus stop थेके छारे आछी (मैं बस स्टॉप tak इसे छोड़ आता हूँ)" खैर मैने ठंडी सांस ली, उनके पिताजी का शुक्रिया अदा किया और निकल गया. शुक्र था की bus में बैठने को सीट मिल गयी ....और आँखे बंद कर सोचने का मौका भी....."मेरी दोस्त श्रेया ने मुझे एक दिन कहा था, "जब समाज-सेवा का काम करने जाओ तो लोग भिखारी की तरह बर्ताव करते हैं....आज मेरे साथ तो शायद इस से भी बुरा हुआ....खाया-पीया कुछ नहीं...ग्लास फोड़ा, बिल 12 आने !!"
"मगर.... मेरे कोलकाता के अनुभव इसके बिलकुल विपरीत और सुन्दर रहे हैं....आखिर यह बंगाली कौन सी चक्की का आटा खाने लगे...कौन जाने !!!!"

यह सोचते-सोचते चल ही रहा था....कि तभी छोटू ने आवाज़ लगाईं......."संदीप, एक फोटो यहाँ पर !!!!"
मैने भी camera निकाला .... self-timer लगा मैं भी दौड़ लगा खड़ा हुआ उनके साथ..... मगर मस्तिष्क में यही सवाल गूँज रहा था, "जिसके पास पैसा है, उनके संस्कार क्यों चले जाते हैं....और जिनके पास कुछ नहीं... संस्कार कभी नहीं भूलते !!!"
"मगर....अंत में सवाल यही है......ज्यादा खुश कौन है अपनी ज़िन्दगी से.....शायद इसका कोई जवाब ना हो !!!!"
बस...सफ़र पर कदम बदते रहे....गीत यह गुन-गुनाता रहा...."जाने क्या ढूंडता है ऐ मेरा दिल....जाने क्या चाहिए ज़िन्दगी ...ला ला ला..ला ला .... ऐ मेरा दिल... "




Friday, July 22, 2011

यादों के झरोखे से....वह हसीन पल !!!!

चिलचिलाती धूप में ....बस्सी मैडम का...... ground का चक्कर लगवाना याद आता है....
पसीने से तर-बतर ....झुंड में पानी के tap तक दौड़ लगाना याद आता है !!!

खो गए ज़िन्दगी के हसीं लम्हे कहीं...
यादों कि परतों को खंगाल....कुछ सुहाना सा तराना याद आता है !!!!

Morning assembly में "हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं"....से....."हम सब भारतवासी भाई-भाई हैं" तक का सफ़र.....
या कहें...बचपन से लड़कपन तक का वह सुनहरा सफ़र याद आता है !!!!

वह देसराज के समोसे....समोसे कि चटनी...tea shop के cream role....
दोस्तों के tiffin box की चोरी...पहली बेंच पर बैठ नीलम मैडम की क्लास में tiffin खाना ....
वह interval में मम्मी के हाथ के ठन्डे पराठों का जायका याद आता है !!!!!

वह teacher को चवन्नी, अट्ठनी, बारह-आने बुलाना.....
गीता मैडम का हर क्लास में चिल्लाना ...
बेदी मैडम का history period में "current affairs" पढ़ाना....
10th class में भी 'क-ख-ग' सुना ना पाया था कोई ...संधू मैडम का इस पर नाराजगी जताना...
सीमा मैडम का class 12th में भी वरिंदर को इंग्लिश की 4-line notebook लगवाना...
वह class में cricket का खेल....और बृजबाला मैडम के हाथों (हथोड़ा) पूरी क्लास का थप्पढ़ खाना याद आता है !!!
अनीता मैडम के fancy goggles.....और Newton Sir (गुरदयाल सर) के गोल-गोल Galileo वाले चश्मे.....
वह झा सर का......"कौन संधि-कौन समास ?" याद आता है.....
हर teacher का चेहरा मानो उन धुंधली यादों को साफ़ करता नज़र आता है !!!!!!

दोस्तों के नाम कहें तो ....अन्डू-पुण्डी, सत्ते-फत्ते, Dipper-Dimple, टुर्ली-मुर्ली, गंजा-चिन्ना, मोटी-भिन्डी, चंपा-जस्सी, मोतियाबिंद.....बस ......यही तो याद आता है !!!!!
'मुल्लनपुर के batch ' के नाम पर teacher का 'अत्याचार'.....और 'Army School batch' के नमूनों का 'सदाचार'.....
क्लास में होली के रंग....तो toilet में पटाखे फोड़ दिवाली मनाना दोस्तों के संग....
वह टूटे switch-board....class में उल्टे-लटकते पंखे....उन टूटी खिडकियों से भाग जाना याद आता है !!!!!

वह हिमालय, नीलगिरी, विन्ध्याचल, अरावली....टैगोरे, लक्ष्मीबाई, सरोजिनी, नेहरु....वह House-prefect कि दादा(दीदी)-गिरी .....वह school competition.....PT-Parade....
'लौंगढ़ जल बरसे' कि ताल पर थिरके थे कदम कभी....Drum कि ताल पर 'Left-Right' कदम बढ़ाना याद आता है !!!

वह छुट्टी कि घंटी पर दौड़ते हज़ार पाँव....School बस ....या कहें 2-tonner, 4-tonner, 6-tonner....तो कभी शक्तिमान....
एक सीट के लिए दोस्तों से लड़ना......
गले में पानी कि बोतल, कंधे पर 4 किलो का बस्ता.....सुबह खिला....दोपहर मुरझाया सा वह मासूम चेहरा याद आता है !!!!!

हर साल....इंच दर इंच पैंट होती छोटी....football कि हर kick पर घिसते जूते....
Charlie BLossom कि खुशबू.....Volleyball का throw......'खो-खो' का 'खो'.....
कसम खाई थी.....नहीं पेहेनेंगे "Navy-Blue" पैंट कभी....
आज उसी आखिरी school-dress कि झलक पाने को दिल चाहता है !!!!!!!!!!!!!!

Friday, August 20, 2010

अतीत के कुछ हसीन पल !!!!!!!

आज मुझे एक सन्देश मिला....सबसे बेहतरीन और बेहद प्यारा :

याद करो वह रात, जब तुम घर देर रात से आये....माँ तुम्हारा अब भी इंतज़ार कर रही थी...तुम्हे डांटा नहीं, मगर गरमा-गरम खाना परोसा.....याद करो वह दिन, जब तुमने अपनी दीदी से अपना स्कूल का गृह कार्य करने के लिए कहा...उसका जवाब आया," अभी तो कर दूँगी, मगर मेरी शादी के बाद तेरा काम कौन कर के देगा"........ याद करो वह दिन, जब तुम्हारे भाई ने नई जींस खरीदी.....तुम्हे पसंद आई और उसने झट से कह दिया,"तुझे पसंद है....रख ले....मैं दूसरी ले लूँगा"
..... अपने परिवार जैसा कोई नहीं..... घर कॉल करो !!!!!!


(दरअसल, यह सन्देश इस रूप में मुझे मिला:
Remember the night, you came late.....ur mother was waiting till this late...didn't scold you, but served u hot dinner......remember the day.....u asked ur sister to do ur homework and she said "abhi to kar doongi, magar meri shaadi ke baad tera homework kaun karega".......remember the day, ur brother baught a new jeans...... u liked it and he just said "tujhe pasand hai...rakh le...main doosra le loonga" .....nothing like ur family .....just call home !!!! )

पढ़ के आँखों में आंसू झलक आये.....यह कोई सन्देश भर नहीं....मेरे अतीत के कुछ हसीन पल हैं.
आज भी याद है.......अक्सर ऑफिस से लेट घर आता था....मगर, मम्मी इंतज़ार करती थी आधी रात तक (और पापा भी)..... हाँ कभी-कभी उनकी डांट मुझे और मेरी मेनेजर को ज़रूर पड़ती थी .....मगर खाना गरमा-गरम ही मिलता था :o)

आज भी याद है.....मैं सुबह तड़के ४ बजे बारिश में भीगा हुआ घर पहुंचा...कोलकता(बैरकपुर) छुट्टियों में....मगर इसके पहले मैं तारो-ताज़ा होता.... मेरा पसंदीदा नाश्ता तैयार था !!!!!!

आज भी याद है......१२ वि कक्षा के दिन.....मैने दीदी से अपनी जीव-विज्ञान की practical कॉपी लिखने की गुजारिश की थी .....कारण- मेरा आलसपन और दीदी की बढ़िया चित्र-कला ;o)
उसकी सगाई हो चुकी थी.... २ महीने बाद ही शादी थी ....उसने मुझसे बिलकुल यही कहा था, जैसे ऊपर के सन्देश में लिखा है,"अभी तो कर दूँगी, मगर मेरी शादी के बाद तेरा काम कौन कर के देगा" ....उसने किया.....और बेहद निपुणता से :o)

आज भी याद है....जब भैया छुट्टियों में घर आया था.....मेरे लिए एक पतलून और अपने लिए एक जींस खरीदी उसने..... मैने अपनी पतलून तो बाद में, उसकी जींस पहन कर पहले ऑफिस गया....दोस्तों को भी पसंद आई....घर आकर जब उसे बताया....वह मुस्कुराते हुए बोला," तुझे पसंद है....रख ले....मैं दूसरी ले लूँगा" ..... और यह जींस आज भी पहन रहा हूँ.... और उसकी बाइक 'CBZ' भी चला रहा हूँ :o)

आज भी याद है.....दोस्तों के साथ लद्दाख जाते हुए....मैं यूं ही, अचानक से छोटी दीदी के घर पठानकोट चला गया.... देर रात से पहुंचा और वह भी बस कुछ घंटों के लिए ....मगर उसने मुझे डांटा नहीं...मेरी प्यारी भांजी सान्वी मेरे इंतज़ार में सोई नहीं, जब तक की उसने अपनी तोतली सी आवाज़ में नर्सरी की कवितायेँ और अपने स्कूल की प्यारी-प्यारी बाते मुझे नहीं बता दी.......और हाँ, मेरी छोटी दीदी की खाना बनाने के कौशल के बारे में कुछ कहना कमतर ही होगा.... मुझे नहीं पता था की मेरा स्वागत राजकुमारों जैसा होगा..... उसे खाना बनाने का शौक है, और मुझे खाने का....और उससे बेहतर मेरे स्वाद को कोई नहीं जानता :o)

हम बड़े क्यों हो जाते हैं....क्यों हूँ मैं घर से इतना दूर.....क्यों नहीं वापिस जा सकता मैं उस हसीन दुनिया में !!!!!!!

Sweet memories from my past

Today, I received the best and the cutest message !!!!!!!!!!!!

Remember the night, you came late.....ur mother was waiting till this late...didn't scold you, but served u hot dinner......remember the day.....u asked ur sister to do ur homework and she said "abhi to kar doongi, magar meri shaadi ke baad tera homework kaun karega".......remember the day, ur brother baught a new jeans...... u liked it and he just said "tujhe pasand hai...rakh le...main doosra le loonga" .....nothing like ur family .....just call home !!!!


Its not just a message..... these are some sweet moments in my memory ......tears are in my eyes...... I still remember those days when I use to come home late from office and someone was waiting for me till midnight (my father too)....though she use to scold me sometime and my manager, but I use to get hot dinner :o)

I still remember the day when I reached home in Kolkata (Barackpore) at morning 4...totally drenched in rain ..... but, my favorite breakfast was ready by the time I freshen up .......

Still remember my class 12th days.....I requested my elder sister to write my Biology Practical Book..... she was good in drawing...... and I was too lazy to write my own practicals......she was already engaged and marriage was fixed just after 2 months......she told me exactly that in the message "Abhi to kar doongi, magar meri shaadi ke baad tera homework kaun karega" ....but she did it...with perfection :o)

Stiil remember the day my brother came for vacation..... bought a trouser for me and a jeans for himself..... I wore his jeans and went to office on next Friday....all my friends liked the jeans...... I came home and said it to my brother...... he just smiled and said "tujhe pasand hai....rakh le...main doosra le loonga" ...... I still wear this jeans and still ride his bike 'CBZ' :o)

Still remember the night when I reached Pathankot to my sister's house....just off-route from my Ladakh trip...... totally unplanned and late in night....that too, just for few hours.....she didn't scold me...... my niece didn't slept and kept waiting till I came, she sing nursery rhymes and told me all the cute things about her school....... and ya, nothing to say about my younger sister's cooking skills...... I just couldn't imagine that I had 'royal' treatment.....she loves cooking and I am too good in finishing it......and no one knows better than her, about my taste buds :o)

Why did I grew up......why I am far from everyone.....why can't I cherish all those moments again !!!!!!!!!!

Friday, June 4, 2010

Poverty and Self-respect.........

10th April 2010:

Its 10:40 in the night. BTW, train was suppose to reach Patna by 10 PM, but........ Long Live Indian Railway !!!!!!!!!!!!

Its 3 hr late in 8 hr journey.....that too Shatabadi Express !!!

Anyways, train had just left Jasidih station (Jharkhand). One old fellow standing near seat on my diagonal caught my attention. One girl was sitting on the seat, whose phone use to ring every time it use to come in network coverage area. May be she is having 'Vodaphone' and the cute little dog of 'Hutch' is still not leaving her alone.

Anyways, the girl didn't even looked at the old fellow. How will she, till her 'Hutch ka kutta' is in 'coverage' area !!!!

But a fellow sitting just in my front seat asked him, " Baba, are you begging? You need some money or something else."

Baba was quite old.....was looking somewhat around 75 yr..... very weak and ill. His sound was too low and in the background of train noise, it was very difficult to hear him. He said," No my son, I am not begging. I am just selling these Necklace (He flashed around 20 necklaces in his hand). I thought bitiya would like one."

But bitiya was too busy on her phone and didn't gave a damn look at him.

With heavy heart, he moved at our seat. I don't know why..... I thought to buy few. Me and fellow passenger sitting next to me, bought 2-2 each at Rs. 10/- each. A fellow on other seat gave him 5/- rupees. Baba said, "Son, its cost is 10." He replied, "No no....I am not asking for the necklace. Just keep this money."
Then I said to him," Please buy the necklace. He is not a beggar. Please don't insult him."

He just smiled, gave 5/- more and took the necklace. In some time, he sold another 10 necklaces.

I was just thinking....... what I will do with these necklaces....its not that beautiful...... I can't gift it to someone..... don't know, why did I bought it.

Train had reached to Kyul Junction. I just got down on the platform. Baba was standing near the door itself. Don't know why...... but liked to talk to him. 2 of my fellow passenger also joined and we talked to him casually. He was 65 yr old, not 75. He was from Babadham (one of the famous pilgrimage town in Jharkhand). He was a farmer. They had to live hard life even when his son was working. I didn't knew much about Babadham, but fellow passenger told that he will not be able to reach home before 2 in the night. But Baba told us that he was going to Patna itself, to meet Laloo Yadav. He came last time to meet him, but Laloo's residence is far from station. He was too old to walk down and Rikshaw guy was asking for 20/-. He just smiled and said, "This time I have got enough money and will take Rikshaw to his residence and will sure meet Laaloo."

Listening to his story, we all laughed. If Laloo 'ji' would have been so kind to farmers and people, Bihar would not be in such condition. Anyways, let him meet Laloo........ let him be happy !!!!!!!!

Train had left the Kyul Junction. I was just thinking.......... one beggar earns more than 100 rupees a day (even Supreme Court Judge had said this), why this poor old man was selling necklace in the train at mid of the night !!!!!!!!!!!

May be........ its a farmer's self-respect and self-esteem.....may be that's the reason...... why every other day, 2 farmers commit suicide in Vidarbha (Maharashtra)..... but they never beg......

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I went back to my seat......... Opened the Book and notebook on which I was suppose to take some notes, but started writing this incident............ and............ again phone ringed....... whose it will be....is it difficult to guess :)
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गरीबी और आत्मसम्मान .........

10 अप्रैल 2010:

रात के 10:40 मिनट। ट्रेन को तो यूँ 10 बजे पटना पहुँच जाना चाहिए था, मगर ......... भारतीय रेल जिंदाबाद !!!!!!!!!
8 घंटे के सफ़र में 3 घंटे की देरी.... वह भी शताब्दी एक्सप्रेस में !!!!!!!

खैर, ट्रेन जसीडिह (झारखण्ड) स्टेशन से चली। कुछ देर बाद मेरी नज़र बगल वाली सीट पर गयी। एक बुज़ुर्ग काफी देर से उस सीट के सामने खड़े थे, बहुत मायूस सा चेहरा बनाये हुए। उस सीट पर एक मोहतरमा बैठी हुई थी, जिनकी फ़ोन की घंटी हर उस जगह बजती, जहाँ मोबाइल का network आता। शायद उनके पास Vodaphone है और Hutch के प्यारे से कुत्ते ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा :o)

खैर, उन मोहतरमा की तो नज़र उन बुज़ुर्ग पर नहीं गयी। अब फ़ोन से उनका ध्यान हटे तब ना। मगर मेरे सामने बैठे एक युवक ने उन बुज़ुर्ग से पूछा, " बाबा, भीख मांग रहें हैं क्या, पैसे चाहिए या कुछ और।"

बाबा कुछ 75 साल के लग रहे थे, काफी कमज़ोर और बीमार से। आवाज़ भी दबी हुई सी निकली, जो ट्रेन की शोर में बड़ी मुश्किल से सुनाई दिया, " नहीं बेटा, माला बेच रहा हूँसोचा की बिटिया को पसंद आएगा।"
मगर बिटिया की नज़र बाबा और उनके हाथ में पड़ी मालाओं पड़े तब ना। बड़े भारी दिल से हमारी सीट की तरफ बढ़े, उनके हाथ में करीब 20 मालाएं थी। पता नहीं क्यों, मगर मेरा मन भी हुआ यह माला खरीदने का। मैने और मेरे साथ बैठे सज्जन, हम दोनों ने 2-2 मालाएं खरीदीं, 10-10 रुपये में। दूसरी तरफ बैठे ने उनकी तरफ 5 रुपये बढ़ाये। बाबा ने उनसे कहा, "10 रुपये में है बाबूजी"। उन सज्जन ने माला लेने से इनकार किया और कहा, "माला नहीं चाहिए, पैसे रख लीजिये।" तभी मैंने उनसे कहा, "भाईसाब, माला ले लीजिये, यह भीख नहीं मांग रहे हैंइनका अपमान मत कीजिये।" सज्जन ने हँसते हुए 5 रुपए और निकाले और माला ले ली। थोड़ी ही देर में 10 और मालाएं बिक गयीं हमारे डब्बे में।

मैं बस यही सोच रहा था की मैं क्या करूंगा इन मालाओं का, किसे दूंगा....इतनी सुन्दर भी ना थी..... और क्यों खरीदी।

ट्रेन क्यूल जंक्शन पहुंची और मैं बाहर प्लेटफ़ॉर्म पर निकला। बाबा भी दरवाज़े पर खड़े थे और अनायास ही उनसे बात करने की इच्छा हुई। मैं और २ अन्य सज्जन, बाबा से बात करने लगे।

उनकी उम्र कुछ 65 साल ही थी, 75 नहीं। बाबाधाम (एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल) के रहने वाले थे। पेशे से किसान थे। उनका बेटा भी खेती करता था, मगर मुश्किल से ही गुज़र बसर हो पाता था। मुझे तो ज्यादा पता नहीं था की बाबाधाम कितनी दूर है, मगर साथ में खड़े सज्जन बोले की 2 बजे से पहले घर नहीं पहुंचेंगे। मगर बाबा को तो पटना ही जाना था। लालू यादव से मिलने। पहले भी मिलने आये थे, मगर घर स्टेशन से दूर था। इस उम्र में उनके लिए पैदल जाना मुश्किल था और रिक्शे वाला 20 रुपये मांगता था। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, " अभी काफी पैसे हो गए हैं और रिक्शे में जा सकूंगा।"

हम सभी उनकी बात सुन कर हंसने लगे। लालू को किसान और जनता की इतनी ही मदद करनी होती तो बिहार की आज यह हालत ना होती। खैर, उन्हें मिल लेने दीजिये लालू 'जी' से, खुश होने दीजिये।

ट्रेन क्यूल स्टेशन से चल दी। मैं यही सोच रहा था कि जब एक भिखारी चौराहे पर बैठ कर रोज़ 100 रुपये से ज्यादा कमा लेता है (जिसका ज़िक्र उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश भी करते हैं) , ऐसे में यह बुज़ुर्ग आधी रात को ट्रेन में माला क्यों बेच रहें हैं।

शायद ..........................एक किसान का आत्मसम्मान और खुद्दारी ही है, जो उसे भीख मांगने से रोकता है .......... शायद इसीलिए.............. महाराष्ट्र के विदर्भ में रोज़ 2 किसान आत्महत्या करते हैं ..........मगर सडकों पर भीख नहीं मांगते।

------------------------------------------------------------------------------------------------- खैर, ट्रेन क्यूल स्टेशन से चल पड़ी..... मैने किताब और नोटबुक खोली कुछ नोट्स बनाने के लिए.... मगर इस वाक्येय को लिखने लगा..... और ..................फ़ोन की घंटी फिर बजी...... किसकी.... यह भी कोई पूछने वाली बात है क्या :)
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Tuesday, December 1, 2009

Slum Dog Millionaire .....

"Slumdog Millionaire"........ The movie was awesome. Anyways, many people liked it as well....... but I have a special reason...... or you can say a past incident in my memory.

This is an incident which could have changed the life of a 2 yr old kid.......

July 1983:

Summer vacations in school was about to end.......A family was coming back to Mumbai by train after vacation. Train reached Kalyan (Maharashtra) station. A gentleman stepped down the train to get water. He didn't realized that his 2 yr old son was also running behind him. His mother thought that he was accompanied by his father. It didn't took much time before kid was lost in the crowd.
Father came back to bogey and when child was not found with him, everyone was tensed, mother was not able to hold her tears....... and soon many were on the platform on a search mission for a 2 yr old kid in red dress. Train was scheduled to depart, but kid was still away......... requesting the station master, train was stopped for a while and police was inform.
Nothing went right in first half an hour till a fellow told police about a person leaving platform with a small kid in red dress. Soon, the guy was caught, going through the railway tracks ahead the platform. Kid was given back to his father and the guy was beaten black & blue by the fellow passengers and later was taken into custody by Police.
People told that he might be a child-thief, generally who kidnap children and force them to beg.

Back to the movie........ Slumdog Millionaire......the scene was going on where hot oil was poured in the children's eye and were made 'Soordas'. The whole story of that 2 yr old poor kid is flashing in my mind....... what would have happened if he was not rescued............ it was just a matter of luck that he was found in the railway station limits itself......... Otherwise, he might have been on some Traffic-Signal ........ without eyes, legs or hands....... don't know...... even the thoughts are scary......begging for "livelihood"...... just one question always comes in my mind....... for "whose livelihood"?

And you would be thinking, why this incident is so important to me ???

The child was no other than me !!!!!!


One more incident of train journey is flashing in my mind......

April 2006:

It was a journey from Kolkata to Bangalore. Morning 7 O'Clock....... train stopped at Rajamundri (Andhra Pradhesh) station and one small kid........ just 7-8 yrs old........ entered in our bogey ...... was wearing just a half-pant....... with a dirty cloth in hand,with which he was cleaning the floor. When he came near to me, got to see wounds and scars all over his body. There was a fresh mark of stitches on his forehead....... seems like somebody had hit hard on his face. How cruel would be his parents.

I was just in my thoughts and a small hand came to me....... not asking for help but for money. Anyways, he had done his job. Its an irony that its not the world's largest employer, the Indian Railway, who keeps the train clean but these kids. And its the money given by people gives "them livelihood".

My hand went into my pocket......but was not coming out. Out of curiosity, I tried to talk to him. To my surprise, he knew Hindi, not that good but could communicate.
He didn't came to this profession at his choice. He was from Orissa and one day he had fight with his parents. He left them in anger and boarded a train without knowing its destination and that too without ticket. Ticket checker caught him and he was left on this station. He didn't had even a penny in his pocket. One "good fellow" gave him food and shelter. But his innocence didn't knew that in this world, nothing comes for free.
He was forced to beg with other kids of his age by that man. He was beaten blue & black whenever he said 'NO'. Scars on his body were telling the story itself. When asked, why doctors are not complaining to police when they are taken to doctors for stitches. The answer, you won't like to hear............The wounds were stitched by that man only..... without anesthesia!!!!!!
No doubt, he had no other choice than to obey his orders.
My hands were still in my pockets. They came out, but were empty. May be, my 2 rupees will help him get at least 2 meals a day....... but may be ......this '2 rupee' given by us is responsible for thousands of children like him to be in this state........... to earn "livelihood" for "someone else".....

After this incident, I never felt like giving money to beggars......I don't know, how far my argument is logical and correct...... but................

Some incidents in life do change our perspective towards many a things........ and it was one.

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It ends my 2nd blog that I started 5 months back....... ended today....... but old habit - dies hard..... and "Some people Never change" :o)


Saturday, June 27, 2009

स्लमडॉग करोड़पति........

"स्लमडॉग करोड़पति".......... यह फ़िल्म काफ़ी अच्छी लगी मुझे....... खैर, अच्छी तो बहुत लोगों को लगी..... मगर मेरे पास एक ख़ास वजह, या कहें की एक पुरानी दास्ताँ है, जो ज़हन में आ गई इस फ़िल्म को देखने के बाद।

किस्सा
है एक ऐसे सफर का जो शायद एक २ साल के बच्चे की ज़िन्दगी बदल देता।

June 1983 - स्कूल की गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने को थी। छुट्टियाँ मना एक परिवार मुंबई वापिस आ रहा था। कल्याण (महाराष्ट्र) स्टेशन पर ट्रेन रुकी। पानी लेने के लिए सज्जन प्लेटफोर्म पर उतरे। उनका २ साल का छोटा सा बच्चा भी उनके पीछे हो लिया। बच्चे की माँ ने सोचा की वह अपने पिता के साथ गया, मगर पिता को पता नही था की वह बच्चा उनके पीछे है। अचानक ही प्लेटफोर्म की भीढ़ में बच्चा गुम हो गया। जब सज्जन वापिस अपनी सीट पर पहुंचे और बच्चे के बारे में पूछा गया, तो पता चला की बच्चा गुम हो गया है। बच्चे की माँ का रो कर बुरा हाल था। उस डब्बे के काफी सारे लोग स्टेशन पर उतर लाल रंग के कपड़े पहने एक बच्चे को खोजने में जुट गए। ट्रेन खुलने का समय हो गया, मगर वह बच्चा नही मिला। स्टेशन मास्टर से गुजारिश कर ट्रेन को रुकवाया गया, गुमशुदगी की सूचना पुलिस को दी गई।

करीब आधे घंटे की खोज ख़बर के बाद किसी व्यक्ति ने पुलिस को बताया कि उसने किसी आदमी को एक छोटे बच्चे के साथ प्लेटफोर्म से बाहर जाते हुए देखा है।

बच्चे के पिता पुलिस और कई लोगों के साथ उस व्यक्ति की तलाश में जुटे। प्लेटफोर्म ख़त्म होने के बाद, पटरी पर एक व्यक्ति बच्चे के साथ जाता हुआ दिखा। उसे पकड़ा गया, बच्चे को वापिस उसके पिता के हवाले किया गया। लोगों कि भीढ़ ने उसकी जम कर पिटाई की। लोगों ने बताया कि यह कोई बच्चा चोर होगा, जो बच्चों को चुरा उनसे भीख मंगवाते हैं।

"Slumdog millionaire" फ़िल्म का वही scene चल रहा था, जिसमे बच्चों कि आँखे फोड़ उन्हें 'सूरदास ' बनाया जाता है। और मेरे ज़हन में उस २ साल के मासूम बच्चे कि याद गई और डर लगा कि क्या होता अगर वह बच्चा नही मिलता .

वह
बच्चा और कोई नही, 'मैं' ही था

सोच कर डर लगता है.......... शायद किसी रेलवे स्टेशन, किसी traffic signal या किसी मन्दिर के पास, बिना आंखों, हाथ या पाँव के मैं भी "गुज़र बसर" कि भीख मांग रहा होता।

मगर बार-बार यही सवाल ज़हन में आता है की आख़िर 'किसकी गुजर बसर के लिए' ??????

एक और ट्रेन का सफर याद आता है.........

April 2006- कोलकाता से बंगलौर का सफर था यह। राजमुंदरी (आंध्र प्रदेश) स्टेशन पर ट्रेन रुकी और एक छोटा सा बच्चा.... यही कोई 7-8 साल का, हमारे डिब्बे में चढ़ा। बदन पर कपड़े के नाम पर बस एक छोटी सी निकर पहने हुए था। हाथ में एक गंदा कपड़ा, जिस से वह ट्रेन का फर्श साफ़ कर रहा था। जब मेरे पास पहुंचा तो उसे नज़दीक से देखा, पूरे बदन पर चोट के निशान थे। उसके माथे पर मालूम पड़ता था, जैसे हाल के कुछ दिनों में किसी ने ज़ोर से कुछ मारा है। टाँके अभी थे उसके माथे पर। सोच रहा था की कितने ज़ालिम होंगे इस बच्चे के माँ-बाप जो इसे इतनी बुरी तरह पीटते हैं।

अभी मैं सोच में डूबा हुआ ही था, की एक नन्हा सा हाथ मेरे सामने आया। मदद के लिए नही, भीख के लिए। आख़िर, यह बच्चे ने मेहनत की है। रेलवे कर्मचारी नही, यह बच्चे ही तो ट्रेन को साफ़ रखते हैं हमारे देश में। और इन पैसों से ही इसकी "गुज़र बसर" होती है।
सहसा ही हाथ जेब में गए, मगर बाहर नही आ रहे थे। खैर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने उस बच्चे से बात करने की कोशिश की। हैरानी की बात थी की उसे हिन्दी आती थी, इतनी अच्छी नही, मगर बोल और समझा सकता था।

वह इस पेशे में अपनी मर्ज़ी से नही आया था, ज़बरन धकेला गया था। उड़ीसा का रहने वाला था। अपने माँ-बाप से गुस्सा हो वह घर से भाग गया। किसी एक ट्रेन में चढ़ गया, बिना टिकेट और TT ने उसे इस स्टेशन पर ज़बरन उतार दिया । यहीं एक 'भले मानूस' के संपर्क में आया जिसने एक भूखे बच्चे को खाना दिया। मगर उसे क्या मालूम था की इस दुनिया में मुफ्त में कुछ नही मिलता। उस गुंडे ने बाकी कई बच्चों के साथ इसे भी भीख मांगने पर मजबूर किया और नही मानने पर मार पड़ती थी। उसके शरीर पर यह सारे ज़ख्म उसके गवाह थे। पुछा कि डॉक्टर के पास गया तो क्या डॉक्टर शिकायत नही करता.......... मगर डॉक्टर के पास उन बच्चों को ले कहाँ जाते थे। बिना anesthesia के उसे टाँके लगाये गए थे। ऐसा तो सोच कर भी डर लगता है की इस छोटे से बच्चे ने यह सब कैसे सहा होगा।

खैर, मेरे हाथ अभी भी जेब में ही थे। बाहर आए, मगर खाली शायद, मेरे दिए रुपये इसकी भूख तो शांत करें, मगर ऐसे कई बच्चे हमारे इस "२ रुपये " की वजह से ही शायद भीख मांगने को मजबूर हैं किसी का "गुज़र-बसर" करने को ............ और इसी वजह से इस घटना के बाद किसी भिखारी को भीख देने की इच्छा नहीं हुई..........पता नहीं, मेरा यह तर्क कितना सही है और कितना गलत..... मगर ........................

कुछ घटनाएं जीवन और समाज के प्रति हमारी सोच को बदल देती हैं ...... और यह घटना भी उनमे से एक है ...........
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खैर, यही अंत होता है मेरे इस लेखन का......... इसकी शुरुआत कुछ 5 महीने पहले हुई थी...... और आज खत्म हुई है......कुछ लोग कभी नहीं बदलते ..... और.... पुरानी आदते इतनी जल्दी नहीं जाती :o)

Friday, June 12, 2009

Ek anjaan se mulakaat (English)

18 July 2008:

It was Friday afternoon in Delhi. The sun was scorching. Our train to Amritsar had just left Delhi. The entire journey from supposed to be from Bangalore to Laddakh. I had left Bangalore on the 16th with my team. We had planned to rest in Delhi for the entire day and then catch the train at night to Jammu.

But I had second thoughts. My sister's house was en route to Jammu and I dearly wished to meet her. No problem with the schedule would occur as I could catch my team at Pathankot the following morning. This last minute change in plans did not go down well with Ashwin bhayia and he chided me.
But my mind was up and I ran to catch the Amritsar train, and without a ticket. Had no time to even buy the ticket!
Anyhow, I paid the fine and reached Jullundhar and as a bonus missed the local train to Pathankot by 5 minutes. Folks who know me well will surely recollect that I am never late by more than 5-10 minutes :)

No problem, I said and took the bus to Pathankot. Soon I was in real Punjab...... reminded me of my good old days in Amritsar which I left 9 years back..... Lush green farms and road-side Punjabi dhabas.

After a few stops, a lady got aboard and as there was no other seat vacant, sat next to me. She asked where I was going. I replied and enquired of her destination. She was also going to Pathankot and so I asked her how much longer would it take to reach Pathankot. “About another hour”, she said. On hearing my Hindi accent, she instantly said, "You don't seem to be Punjabi. We businessman can easily identify by their accent, to which place people belong.... whether Punjabi, Gujarati, Bengali or Madrasi. I smiled and amusedly thought, “Hmm, do not all of us possess at least half this capability?”. In North India, for some people all South Indians are "Madrasi", whether they are Telugu, Kannadiga, Tamilian or Malu.
Anyways, her Hindi accent was also not like that of a Punjabi and I asked where she hailed from. She replied that she was from Madhya Pradesh; born & bought up in Delhi. She was surprised to know that I shall reach Pathankot at 8 in the evening and leave the next day itself at 4 in the morning. I told her, "I met my sister and jiju a year back. My cute little niece is 2 years old now and I just want to spend some time with them, and even if it was for a few hours only it would be nice."

She kept silent for the next few minutes. Then she said, "Your sister loves you a lot naa.....”. Her eyes were moist and voice was a bit heavy.

"Ya, of course....”, I replied, “Why would anyone doubt that?"
She said in a heavy voice," I have a brother too. But, its been 18 yrs, since I last saw him."

After saying this, she again kept quiet. She was looking so sad. I broke the silence after a few minutes. I asked her, "Is there something that’s bothering you?"
She said, "You are a stranger to me. I don't know whether I should share it with you or not. But I have a problem and am not getting the solution."

Then I comfortingly said," There are always things that we cannot share with our family or friends, but can tell it freely to any stranger. You can share it with me....... maybe I can help you in some way."

Then she began telling me her story. Some 18 years back, when she was in school, she had an affair with a guy. She was 17 years old at that time. Her mother, who was a nurse by profession, wanted her to become a doctor. But, she was just not inclined towards studies and all she ever wanted was to marry that guy. Her parents were dead against it. They didn't even know the boy and neither was it the correct age for her to get married.
But as is the case with young, immature and perhaps foolish love, one day she eloped with that guy, now her husband. He is currently a businessman in Pathankot. The initial 10-12 years passed away happily. They have 3 kids.
But, for the past few years, her husband has been having an illicit relationship with a lady. There were regular fights at home over this issue. And later her husband left both her and their children and started living with that lady.
She had little option but to take over the business to run her house and provide for her kids. What choice did she have? There was no one to whom she could turn for succor. Many a time she kept telling, "I left my family for this man. I trusted him, left my parents.... my home. How could he cheat on me?"
Now, she dearly misses her home, her parents and her brother. But, she feared going to her parents.

On hearing her story, I asked, "Did you try to contact your parents in the last 18 years, did you even write a letter?"
“No”, she replied. This made me quite angry. I thought that her behavior towards her parents was quite reprehensible. I felt more anger towards her than pity.
In a harsh tone, I admonished her, "For your own petty selfishness, you left your parents, you never even tried to contact them, you never gave a thought about your parents. You surely know how much insult and humiliation they would have faced from their neighbors, relatives and society. You never cared about all that; till you were living a happy life, you never remembered them. Now, in this hour of crisis you are missing them?"

My outburst made her cry. I regretted my harsh words and thought that I shouldn't have spoken in that tone. I was feeling apologetic about my behavior.

She said, "Yes, you are right …. Everyone has to face the consequences of their actions in this life only. And I am facing it now. My parents loved me so much. In return, I had broken their trust, I cheated them. I am now facing the same thing."
After a short pause, she said," I would have committed suicide. But my dear children... I am just living for them. Seeing my children, I realize now that how much my parents loved me. But I reciprocated I by cheating them."

Now I gently said, "Please don't cry. I shouldn't have talked to you like that. I am sorry for that."
She replied," No, I am not hurt about what you said. I am just thinking that whether I will ever meet my parents or not. I have no one in this world except my children."

"You go to your parents”, I advised, “They will definitely forgive you." But she was too overcome by guilt and replied, "No, I don't have guts to go. My brother wouldn't even recognize me; my parents would have erased all memories about me."

I tried to lift her spirits and said," Please don't think like that. Its only children, who forget their parents, leave them. But, parents neither forget their children nor leave them. Anyways, it is children who commit mistakes naa……. To be honest, I can't say about your brother, but your parents will definitely forgive you,"
She said," Why will they forgive me. They will scold me and throw me out of the house."

I said," Don't think like that. Yes, your parents will definitely scold you. They may even slap you, but they will not shoot you... will they? They may not allow you to enter the house. But come what may; don't leave the door till they allow you in. Parents always forgive their children. And, ya.... whatever humiliation you will have to face, that's insufficient for what you did to them..... isn't it."

I just smiled and said," Take your children with you. Old people like interest more than the principle amount, right? Grandparents adore their grandchildren."

She was again quiet. She closed her eyes and was thinking something. I could see a sense of relief on her face.

By now it seemed that we were very near Pathankot. I asked her whether we had reached our destination. Indeed we were in Pathankot and she asked my address. She was supposed to get down at next stop. She told me to get down at next chouraha.

She got up and said," It was very nice meeting and having this chat with you. You correctly said that it’s sometimes easier to talk freely with a stranger. Tomorrow itself, I will go and book the earliest possible reservation for Delhi."
There were tears in her eyes, but also a ray of hope. She alighted from the bus.

Neither did I ask her name, nor she mine. We were total strangers till the very end; I, was a stranger who now knew the intimate details of a fellow stranger but not name!!!!.
I sincerely hope that she had gone to meet her parents......... and am curious to know what happened next. Hopefully things went well.
I don't know her name....... and maybe I will never ever come to know, what happened.........But you know....I do believe that I shall never forget this 1 hr journey………

Saturday, May 23, 2009

एक अनजान से मुलाक़ात

18 जुलाई 2008:
दोपहर होने को थीअमृतसर जाने वाले ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन छोड़ चुकी थी
यूँ तो यह सफर
था बंगलोर से लद्दाख तक का अपनी टीम के साथ 16 जुलाई को दिल्ली की ओर निकला दिल्ली में पूरे दिन रुकना था मैंने सोचा की दीदी से मिल आता हूँ दीदी पठानकोट में थी जम्मू तो जाना ही था, सोचा की पठानकोट चला जाऊं और अपने दोस्तों के साथ पठानकोट स्टेशन पर उनके ट्रेन में सुबह चढ़ जाऊं
खैर, अपने सारे काम अश्विन भईया को सौंप और उनसे ढेर सारी डांट खा कर मैं भागते हुए अमृतसर की ट्रेन में चढ़ गया, बगैर टिकेट समय कहाँ था टिकेट खरीदने का, जुर्माना भर मैं जालंधर पहुंचा मगर 5 मिनट से पठानकोट की लोकल ट्रेन छूट गई वैसे भी, मैं अक्सर 5-10 मिनट ही देर करता हूँ, ज़्यादा नही :)
फिर क्या, पठानकोट की बस पकड़ी बस निकल पड़ी और कुछ देर में मैं शहर से दूर असली पंजाब में था हरे-भरे खेत और सड़क किनारे पंजाबी ढाबे 9 साल पहले छोड़े अमृतसर की याद गई
कुछ देर बाद बस रुकी और एक महिला बस में चढ़ी कोई और सीट खाली देख, मेरे बगल की सीट पर बैठ गयीं उन्होंने मुझ से पूछा की मैं कहाँ जा रहा हूँ, मैंने बताया और उनका गंतव्य भी पूछा। वह भी पठानकोट ही जा रहीं थी, सो मैंने उनसे पुछा की और कितना समय लगेगा पठानकोट पहुँचने में कोई 1 घंटा और लगना था मेरी हिन्दी सुन कर वह तपाक से बोलीं की मैं पंजाबी नही हूँ वह बोलीं " हम business वाले, लोगों की बोली से पहचान जाते हैं की कौन पंजाबी है, गुजराती, बंगाली या मद्रासी है " मैं सुन कर मुस्कुरा दिया मन ही मन सोच रहा था, "उत्तर भारत में अक़्सर दक्षिण भारतियों का 'मद्रासी' समझा जाता है, भले ही वह तमिल हो, तेलुगु या मलयाली"
खैर उनकी हिन्दी भी पंजाबियों जैसी नही लग रही थी, तो मैंने भी उनसे पूछा वह मध्य प्रदेश से थीं, और दिल्ली में पली बढ़ी उन्हें यह जान कर काफ़ी हैरानी हुई की मैं रात 8 बजे पठानकोट पहुंचूंगा और सुबह 4 बजे रवाना हो जाऊँगा मैंने कहा," दीदी-जीजाजी से मिले 1 साल हो गए और मेरी प्यारी सी भांजी है, सान्वी, 2 साल की उन सबसे मिलने का बड़ा मन कर रहा था, तो गया भले ही कुछ घंटो के लिए सही, अच्छा समय गुजरेगा"
यह सुन कर वह 5 मिनट के लिए चुप हो गयीं। फिर वह मुझ से बोली, "आप की दीदी आप से बहुत प्यार करती हैं ना?" उनकी आँखें भर आयीं थी और आवाज़ भी भारी थी। मैंने जवाब दिया, "हाँ, इसमे पूछने की क्या बात है।"
उन्होंने कहा, "मेरा भी एक भाई है। आपकी उम्र का ही है, मगर 18 साल हो गए उससे मिले।"
इतना कह कर वह फिर चुप हो गयीं। चेहरा उदास हो गया था। कुछ पल की चुप्पी के बाद मैंने उनसे पुछा की क्या बात है, तो वह बोलीं, "मैं आपको जानती नही, पता नही मुझे आपसे यह बात कहनी चाहिए या नही। मगर एक उलझन है, जिसका हल मुझे नही मिल रहा।"
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, " कुछ बातें ऐसी होती हैं जो हम अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से नही कह पाते। मगर किसी अजनबी का बताने में कोई हर्ज नही। शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूं।"
फिर उन्होंने मुझे अपनी कहानी बताई। करीब 18 साल पहले जब वह स्कूल में ही थीं, उन्हें किसी लड़के से प्यार हुआ। तब उनकी उम्र 17 साल थी, उनकी माँ जो पेशे से नर्स हैं, उन्हें डॉक्टर बनाना चाहती थी। मगर इन्हे पढ़ाई में मन नही लगता था, बस उसी लड़के से शादी करना चाहती थी। घर वाले इसके ख़िलाफ़ थे। वह ना तो इस लड़के का जानते थे, ना ही यह सही उम्र थी शादी की। मगर इन्होने घर से भाग के शादी कर ली। इनका पति पठानकोट में ही बिज़नस करता है, शादी के पहले 10-12 साल काफ़ी खुशगवार गुज़रे। 3 बच्चे हैं इनके।
मगर पिछले कुछ सालों से इनके पति का किसी और औरत के साथ चक्कर चल गया। पहले तो घर में बस झगडे होते रहे, मगर बाद में इनका पति घर छोड़ कर उसी औरत के साथ रहने लगा। घर का खर्च चलाने और बच्चों की परवरिश के लिए इन्हें बिज़नस संभालना पडा। एक औरत के लिए अकेले यह सब करना मुश्किल हुआ। कोई मदद करने वाला भी तो नही था। बार-बार यही कहती रही, "आख़िर मैंने जिस इंसान पर भरोसा कर अपना घर, अपने माँ-बाप छोडे, उसने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा कैसे किया ?"
अब
उन्हें उनके घर की बहुत याद आती थी, उनके बचपन के दिन याद आते थे। लेकिन वह घर जाने से डरती थी, आख़िर किस मुहँ से जाएँ वह। मैंने उनसे पुछा, " आपने पिछले 18 सालों में कभी अपने माँ-बाप का चिट्ठी तक न लिखी ?" उनका जवाब ना था। मुझे तो अब उनकी दुःख भरी कहानी सुन, उन पर दया से ज्यादा गुस्सा आ रहा था।
मैंने उन्हें डांटते हुए कहा, " आपने अपने स्वार्थ के लिए अपने माँ-बाप का छोड़ दिया। कभी उनकी ख़बर भी नही ली। कभी यह भी नही सोचा की आपके घर से भागने के बाद समाज में उनकी क्या इज्ज़त रही होगी। जब तक आपकी ज़िन्दगी खुशहाल थी, आपको उनकी याद तक नही आई। अब, आपको उनकी याद आ रही है क्योंकि आप तकलीफ में हैं।"
वह रो पड़ीं। मुझे भी लगा कि मुझे भी इस लहजे में बात नही बोलनी चाहिए थी। वह रोते हुए बोलीं, "आपने ने सही कहा, हर किसी को अपने कर्मो की सज़ा इसी जन्म में भुगतनी पड़ती है। मैंने अपने माँ-बाप को इतने दुःख दिए। मैंने उन्हें धोखा दिया, अब वही मेरे साथ भी हो रहा है।"
"मैंने तो कब की खुदखुशी कर ली होती, बस अपने बच्चों के लिए जी रही हूँ। अब अपने अपने बच्चों को देख कर लगता है की मेरे माँ-बाप भी कितना प्यार करते थे मुझसे। मगर मैंने उन्हें बस धोखा ही दिया। "
मैंने कहा," आप रोइए मत, मैं माफ़ी चाहूँगा। मुझे ऐसे बात नही करनी चाहिए थी।"
वह बोलीं,"नही, मैंने बुरा नही माना। बस मुझे समझ नही आता कि मैं कभी अपने मम्मी-पापा से कभी मिलूंगी भी कि नही। अपने बच्चों को छोड़ अब कोई भी तो नही है मेरा।"
मैंने कहा," आप अपने मम्मी-पापा के पास जाइये। वह आपको ज़रूर माफ़ कर देंगे।"
वह बोलीं," नही, कभी जाने कि हिम्मत नही होती। मेरा भाई तो अब मुझे पहचानता भी नही होगा। सब मुझे भूल ही चुके होंगे।"
मैंने कहा," आप ऐसा मत सोचिये। बच्चे ही माँ-बाप को भूल जाते हैं, छोड़ जाते हैं। माँ-बाप कभी बच्चो को नही और ना भूलते हैं । आख़िर बच्चे ही तो गलतियाँ करते हैं। आप एक बार उनसे मिल आयें। आपके भाई का पता नही, मगर आपके मम्मी-पापा आपको ज़रूर माफ़ कर देंगे।"
वह बोलीं," लेकिन वह लोग मुझे क्यों माफ़ करेंगे, मुझे गालियाँ दे कर भगा देंगे।"
मैंने कहा," ऐसा मत सोचिये। आपको ज़रूर वह लोग गालियाँ देंगे, शायद थप्पड़ भी पड़े। मगर आपके माँ-बाप गोली तो नही मार देंगे? वह लोग आपको शायद घर में घुसने भी ना दें, मगर आप दरवाज़े पे ही खड़े रहिएगा वह आपको ज़रूर अपना लेंगे। माँ-बाप अपने बच्चों को हमेशा माफ़ कर देते हैं। और हाँ, आपको जो इतनी बेइज़त्ति झेलनी पड़े, शायद आपकी गलतियों के लिए काफ़ी कम होगा।"
यह कह कर मैं हंस दिया और बोला," अपने बच्चों को साथ ले जाइएगा। बूढ़े लोगों को असल से ज़्यादा सूद पसंद आता है।"
उनके चेहरे पर थोड़ा सा सुकून दिखा। उन्होंने आँखे बंद कि और कुछ सोचने लगीं।
हम तब तक पठानकोट लगभग पहुँच चुके थे। मैंने उनसे पूछा कि हम पठानकोट आ गएँ है क्या?
उन्होंने हाँ में जवाब दिया और मुझसे address पूछा कि कहाँ जाना है। कुछ ही देर में उनका stop आ गया। मुझे कहा कि अगले चौक पर उतर जाइयेगा। बोलीं," आपसे मिल कर और बात कर के काफ़ी अच्छा लगा। आपने सही कहा, शायद अनजान लोगों से हम पूरी तरह बात कह पाते हैं। और मैं कल ही जाकर, जिस पहले दिन कि rseservation मिलेगी,दिल्ली की टिकेट करा लूंगी।"
उनकी आखों में फिर आंसू थे, मगर शायद उम्मीद कि किरण भी थी। वह बस से उतर गयीं।
ना मैंने उनका नाम पूछा, ना उन्होंने मेरा। हम बिल्कुल अनजान थे। मगर यह 1 घंटे का सफर, शायद ज़िन्दगी में कभी ना भूले।
मुझे उम्मीद है कि वह अपने मम्मी-पापा से मिलने ज़रूर गयीं होंगी। जानने कि इच्छा होती है कि आगे क्या हुआ।
मगर मैं तो उनका नाम तक नही जानता..................शायद कभी पता ना चल पाये, कि आगे क्या हुआ.........